ऐ लोगो! अपने[1] उस पालनहार से डरो, जिसने तुम्हें एक जीव (आदम) से पैदा किया तथा उसी से उसके जोड़े (हव्वा) को पैदा किया और उन दोनों से बहुत-से नर-नारी फैला दिए। उस अल्लाह से डरो, जिसके माध्यम से तुम एक-दूसरे से माँगते हो, तथा रिश्ते-नाते को तोड़ने से डरो। निःसंदेह अल्लाह तुम्हारा निरीक्षक है।
1. यहाँ से सामाजिक व्यवस्था का नियम बताया गया है कि विश्व के सभी नर-नारी एक ही माता-पिता से पैदा किए गए हैं। इसलिए सब समान हैं। और सबके साथ अच्छा व्यवहार तथा भाई-चारे की भावना रखनी चाहिए। यह उस अल्लाह का आदेश है जो तुम्हारे मूल का उत्पत्तिकर्ता है। और जिसके नाम से तुम एक-दूसरे से अपना अधिकार माँगते हो कि अल्लाह के लिए मेरी सहायता करो। फिर इस साधारण संबंध के सिवा रिश्तेदारी का संबंध भी है, जिसे जोड़ने पर बहुत बल दिया गया है। एक ह़दीस में है कि रिश्तेदारी को तोड़ने वाला जन्नत में नहीं जाएगा। (सह़ीह़ बुख़ारी : 5984, मुस्लिम : 2555) इस आयत के पश्चात् कई आयतों में इन्हीं अल्लाह के निर्धारित किए मानव अधिकारों का वर्णन किया जा रहा है।
तथा अनाथों को उनका माल दे दो और पवित्र व हलाल चीज़ के बदले अपवित्र व हराम चीज़ न लो और उनके माल को अपने माल के साथ मिलाकर न खाओ। निःसंदेह यह बहुत बड़ा पाप है।
और यदि तुम्हें डर हो कि अनाथ लड़कियों (से विवाह) के मामले[2] में न्याय न कर सकोगे, तो अन्य औरतों में से जो तुम्हें पसंद हों, दो-दो, या तीन-तीन, या चार-चार से विवाह कर लो। लेकिन यदि तुम्हें डर हो कि (उनके बीच) न्याय नहीं कर सकोगे, तो एक ही से विवाह करो अथवा जो दासी तुम्हारे स्वामित्व[3] में हो (उससे लाभ उठाओ)। यह इस बात के अधिक निकट है कि तुम अन्याय न करो।
2. अरब में इस्लाम से पूर्व अनाथ बालिका का संरक्षक यदि उसके खजूर का बाग़ हो, तो उसपर अधिकार रखने के लिए उससे विवाह कर लेता था। जबकि उसे उसमें कोई रूचि नहीं होती थी। इसी पर यह आयत उतरी। (सह़ीह़ बुख़ारी, ह़दीस संख्या : 4573) 3. अर्थात युद्ध में बंदी बनाई गई दासी।
तथा अपना धन, जिसे अल्लाह ने तुम्हारे लिए जीवन-यापन का साधन बनाया है, नासमझ लोगों को न दो।[4] और उन्हें उसमें से खिलाते और पहनाते रहो और उनसे भली बात कहो।
4. अर्थात धन, जीवन स्थापन का साधन है। इसलिए जब तक अनाथ चतुर तथा व्यस्क न हो जाएँ और अपने लाभ की रक्षा न कर सकें, उस समय तक उनका धन, उनके नियंत्रण में न दो।
तथा अनाथों को जाँचते रहो, यहाँ तक कि जब वे वयस्कता की आयु को पहुँच जाएँ, तो यदि तुम देखो कि उनमें समझ-बूझ आ गई है, तो उनका माल उन्हें सौंप दो। और उसे फ़िज़ूल खर्ची से काम लेते हुए जल्दी-जल्दी इसलिए न खा जाओ कि वे बड़े हो जाएँगे (और अपने माल पर क़ब्ज़ा कर लेंगे)। और जो धनी हो, वह (अनाथ का माल खाने से) बचे तथा जो निर्धन हो, वह परंपरागत रूप से खा सकता है। तथा जब तुम उनका धन उनके हवाले करो, तो उनपर गवाह बना लो। और अल्लाह हिसाब लेने के लिए काफ़ी है।
पुरुषों के लिए उस (धन) में से हिस्सा है, जो माता-पिता और क़रीबी रिश्तेदार छोड़ जाएँ, तथा स्त्रियों के लिए भी उसमें से हिस्सा है, जो माता-पिता और क़रीबी रिश्तेदार छोड़ जाएँ, वह थोड़ा हो या अधिक। ये हिस्से (अल्लाह की ओर से) निर्धारित[5] हैं।
5. इस्लाम से पहले साधारणतः यह विचार था कि पुत्रियों का धन और संपत्ति की विरासत (उत्तराधिकार) में कोई भाग नहीं। इसमें इस कुरीति का निवारण किया गया और नियम बना दिय गया कि अधिकार में पुत्र और पुत्री दोनों समान हैं। यह इस्लाम ही की विशेषता है जो संसार के किसी धर्म अथवा विधान में नहीं पाई जाती। इस्लाम ही ने सर्वप्रथम नारी के साथ न्याय किया और उसे पुरुषों के बराबर अधिकार दिया है।
और उन लोगों को डरना चाहिए कि यदि वे अपने पीछे कमज़ोर संतान छोड़ जाते, तो उन्हें उनके बारे में कैसा भय होता। अतः उन्हें चाहिए कि अल्लाह से डरें और भली बात कहें।
अल्लाह तुम्हारे संतान के संबंध में तुम्हें आदेश देता है कि पुत्र का हिस्सा, दो पुत्रियों के बराबर है। यदि (दो या) दो से अधिक पुत्रियाँ[7] ही हों, तो उनके लिए छोड़े हुए धन का दो तिहाई हिस्सा है। और यदि एक ही (लड़की) हो, तो उसके लिए आधा हिस्सा है। और अगर उस (मृतक) की कोई संतान है, तो उसके माता-पिता में से प्रत्येक के लिए उसके छोड़े हुए धन का छठवाँ हिस्सा है। और यदि उसकी कोई संतान नहीं[8] है और उसके वारिस उसके माता-पिता ही हों, तो उसकी माँ के लिए तिहाई (हिस्सा)[9] है (और शेष पिता का होगा)। फिर यदि (माता पिता के सिवा) उसके (एक से अधिक) भाई (या बहन) हों, तो उसकी माँ के लिए छठवाँ हिस्सा है, यह (विरासत का बंटवारा) उस (मृतक) की वसिय्यत[10] का निष्पादन करने, या उसका क़र्ज़ चुकाने के बाद होगा। तुम्हारे बाप हों या तुम्हारे बेटे, तुम नहीं जानते कि उनमें से कौन तुम्हारे लिए अधिक लाभदायक है। यह अल्लाह का निर्धारित किया हुआ हिस्सा है। निःसंदेह अल्लाह सब कुछ जानने वाला और हिकमत वाला है।
7. अर्थात केवल पुत्रियाँ हों, तो दो हों अथवा दो से अधिक हों। 8. अर्थात न पुत्र है और न पुत्री। 9. और शेष पिता का होगा। भाई-बहनों को कुछ नहीं मिलेगा। 10. वसिय्यत का अर्थ उत्तरदान है, जो एक तिहाई या उससे कम होना चाहिए, परंतु वारिस के लिए उत्तरदान नहीं है। (देखिए : तिर्मिज़ी : 975) पहले ऋण चुकाया जाएगा, फिर वसिय्यत पूरी की जाएगी, फिर माँ का छठा भाग दिया जाएगा।
और तुम्हारे लिए उस (धन) का आधा है जो तुम्हारी पत्नियाँ छोड़ जाएँ, यदि उनकी संतान न हो। लेकिन यदि उनकी संतान हो, तो तुम्हारे लिए उस (धन) का चौथाई होगा जो वे छोड़ गई हों, उनकी वसिय्यत का निष्पादन करने या क़र्ज़ चुकाने के बाद। तथा उन (पत्नियों) के लिए तुम्हारे छोड़े हुए धन का चौथाई हिस्सा है, यदि तुम्हारी संतान न हो। लेकिन यदि तुम्हारी संतान हो, तो उनके लिए उस (धन) का आठवाँ[11] (हिस्सा) होगा जो तुमने छोड़ा है, तुम्हारी वसिय्यत पूरी करने अथवा क़र्ज़ चुकाने के बाद। तथा यदि किसी ऐसे पुरुष या स्त्री की विरासत हो, जो 'कलाला'[12] हो (अर्थात् उसकी न संतान हो, न पिता) तथा (दूसरी माता से) उसका कोई भाई अथवा बहन हो, तो उनमें से हर एक के लिए छठवाँ (हिस्सा) होगा। लेकिन यदि वे एक से अधिक हों, तो वे सब एक तिहाई में साझीदार होंगे, उसकी वसिय्यत का निष्पादन करने या क़र्ज़ चुकाने के बाद, जबकि वह किसी को हानि पहुँचाने वाला न हो। यह अल्लाह की ओर से वसिय्यत है और अल्लाह सब कुछ जानने वाला, अत्यंत सहनशील है।
11. यहाँ यह बात विचारणीय है कि जब इस्लाम में पुत्र-पुत्री तथा नर-नारी बराबर हैं, तो फिर पुत्री को पुत्र के आधा, तथा पत्नी को पति का आधा भाग क्यों दिया गया है? इसका कारण यह है कि पुत्री जब युवती और विवाहित हो जाती है, तो उसे अपने पति से महर (विवाह उपहार) मिलता है, और उसके तथा उसकी संतान के यदि हों, तो भरण-पोषण का भार उसके पति पर होता है। इसके विपरीत, पुत्र युवक होता है तो विवाह करने पर अपनी पत्नी को महर (विवाह उपहार) देने के साथ ही, उसका तथा अपनी संतान के भरण-पोषण का भार भी उसी पर होता है। इसीलिए पुत्र को पुत्री के भाग का दुगना दिया जाता है, जो न्यायोचित है। 12. कलाला : वह पुरुष अथवा स्त्री है, जिसके न पिता हो और न पुत्र-पुत्री। अब इसके वारिस तीन प्रकार के हो सकते है : 1. सगे भाई-बहन। 2. पिता एक तथा माताएँ अलग-अलग हों। 3. माता एक तथा पिता अलग-अलग हों। यहाँ इसी प्रकार का आदेश वर्णित किया गया है। ऋण चुकाने के पश्चात् बिना कोई हानि पहुँचाए, यह अल्लाह की ओर से आदेश है, तथा अल्लाह अति ज्ञानी, अत्यंत सहनशील है।
ये अल्लाह की (निर्धारित की हुई) सीमाएँ हैं। और जो अल्लाह तथा उसके रसूल का आज्ञापालन करेगा, अल्लाह उसे ऐसे बाग़ों में दाख़िल करेगा जिनके नीचे नहरें बह रही होंगी। उनमें वे हमेशा रहेंगे तथा यही बड़ी सफलता है।
और जो अल्लाह और उसके रसूल की अवज्ञा करेगा तथा उसकी सीमाओं का उल्लंघन करेगा, (अल्लाह) उसे आग (नरक) में डालेगा, जिसमें वह सदैव रहेगा और उसके लिए अपमानजनक यातना है।
तथा तुम्हारी स्त्रियों में से जो व्यभिचार कर बैठें, उनपर अपनों में से चार पुरुषों को गवाह लाओ। यदि वे गवाही दे दें, तो उन औरतों को घरों में बंद रखो, यहाँ तक कि उन्हें मौत आ जाए या अल्लाह उनके लिए कोई रास्ता[13] निकाल दे।
13. यह इस्लाम के आरंभिक युग में व्याभिचार का सामयिक दंड था। इसका स्थायी दंड सूरतुन्-नूर आयत 2 में आ रहा है। जिसके उतरने पर नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया : अल्लाह ने जो वचन दिया था उसे पूरा कर दिया। उसे मुझसे सीख लो।
और तुममें से जो दो पुरुष यह कर्म करें, उन्हें यातना दो। फिर यदि वे तौबा कर लें और अपने आपको सुधार लें, तो उन्हें छोड़ दो। निःसंदेह अल्लाह बड़ा क्षमाशील, दयावान् है।
अल्लाह के पास उन्हीं लोगों की तौबा स्वीकार्य है, जो अनजाने में बुराई कर बैठते हैं, फिर शीघ्र ही तौबा कर लेते हैं। तो अल्लाह ऐसे ही लोगों की तौबा क़बूल करता है। तथा अल्लाह सब कुछ जानने वाला हिकमत वाला है।
और उनकी तौबा स्वीकार्य नहीं, जो बुराइयाँ करते जाते हैं, यहाँ तक कि जब उनमें से किसी की मौत का समय आ जाता है, तो कहने लगता है : "अब मैंने तौबा कर ली!" और न ही उनकी (तौबा स्वीकार्य है) जो काफ़िर रहते हुए मर जाते हैं। उन्हीं के लिए हमने दुःखदायी यातना तैयार कर रखी है।
ऐ ईमान वालो! तुम्हारे लिए हलाल (वैध) नहीं कि ज़बरदस्ती स्त्रियों के वारिस बन जाओ।[14] और उन्हें इसलिए न रोके रखो कि तुमने उन्हें जो कुछ दिया है, उसमें से कुछ ले लो, सिवाय इसके कि वे खुली बुराई कर बैठें। तथा उनके साथ भली-भाँति[15] जीवन व्यतीत करो। फिर यदि तुम उन्हें नापसंद करो, तो संभव है कि तुम किसी चीज़ को नापसंद करो और अल्लाह उसमें बहुत ही भलाई[16] रख दे।
14. ह़दीस में है कि जब कोई मर जाता, तो उसके वारिस उसकी पत्नी पर भी अधिकार कर लेते थे। इसी को रोकने के लिए यह आयत उतरी। (सह़ीह़ वुख़ारी : 4579) 15. ह़दीस में है कि पूरा ईमान उसमें है जो सुशील हो। और भला वह है, जो अपनी पत्नियों के लिए भला हो। (तिर्मिज़ी :1162) 16. अर्थात पत्नी किसी कारण न भाए, तो तुरंत तलाक़ न दे दो, बल्कि धैर्य से काम लो।
और यदि तुम एक पत्नी के स्थान पर दूसरी पत्नी लाना चाहो और तुमने उनमें से किसी को (महर में) ढेर सारा धन दे रखा हो, तो उसमें से कुछ न लो। क्या तुम उसे अनाधिकार और खुला गुनाह होते हुए भी ले लोगे।
और उन स्त्रियों से विवाह[17] न करो, जिनसे तुम्हारे पिताओं ने विवाह किया हो, परंतु जो पहले हो चुका[18] (सो हो चुका)। वास्तव में, यह निर्लज्जता तथा क्रोध की बात और बुरी रीति है।
17. जैसा कि इस्लाम से पहले लोग किया करते थे। और हो सकता है कि आज भी संसार के किसी कोने में ऐसा होता हो। परंतु यदि भोग करने से पहले बाप ने तलाक़ दे दी हो, तो उस स्त्री से विवाह किया जा सकता है। 18. अर्थात इस आदेश के आने से पहले जो कुछ हो गया, अल्लाह उसे क्षमा करने वाला है।
तुमपर हराम[19] (निषिद्ध) कर दी गई हैं; तुम्हारी माताएँ, तुम्हारी बेटियाँ, तुम्हारी बहनें, तुम्हारी फूफियाँ, तुम्हारी मौसियाँ (खालाएँ) और भतीजियाँ, भाँजियाँ, तुम्हारी वे माताएँ जिन्होंने तुम्हें दूध पिलाया है, दूध के रिश्ते से तुम्हारी बहनें, तुम्हारी पत्नियों की माताएँ (सासें) , तुम्हारी गोद में पालित-पोषित तुम्हारी उन पत्नियों की बेटियाँ जिनसे तुम संभोग कर चुके हो। यदि तुमने उनसे संभोग न किया हो, तो तुमपर (उनकी बेटियों से विवाह करने में) कोई गुनाह नहीं, और तुम्हारे सगे बेटों की पत्नियाँ और यह कि तुम दो बहनों को (निकाह में) एकत्रित करो, परंतु जो (अज्ञानता के काल में) बीत चुका[20], (सो बीत चुका)। निःसंदेह अल्लाह अत्यंत क्षमाशील, असीम दयावान है।
19. दादियाँ तथा नानियाँ भी इसी में आती हैं। इसी प्रकार पुत्रियों में अपनी संतान की नीचे तक की पुत्रियाँ, और बहनों में सगी हों या पिता अथवा माता से हों, फूफियों में पिता तथा दादा की बहनें, और मोसियों में माताओं और नानियों की बहनें, तथा भतीजी और भाँजी में उन की संतान भी आती हैं। ह़दीस में है कि दूध से वह सभी रिश्ते ह़राम हो जाते हैं, जो गोत्र से ह़राम होते हैं। (सह़ीह़ बुख़ारी : 5099, मुस्लिम : 1444) पत्नी की पुत्री जो दूसरे पति से हो उसी समय ह़राम (वर्जित) होगी जब उसकी माता से संभोग किया हो, केवल विवाह कर लेने से ह़राम नहीं होगी। जैसे दो बहनों को निकाह़ में एकत्र करना वर्जित है, उसी प्रकार किसी स्त्री के साथ उसकी फूफी अथवा मौसी को भी एकत्र करना ह़दीस से वर्जित है। (देखिए : सह़ीह़ बुखारी : 5105, सह़ीह़ मुस्लिम : 1408) 20. अर्थात जाहिलिय्यत के युग में।
तथा उन स्त्रियों से (विवाह करना हराम है), जो दूसरों के निकाह़ में हों, सिवाय तुम्हारी दासियों[21] के। यह अल्लाह ने तुम्हारे लिए अनिवार्य कर दिया[22] है। और इनके सिवा दूसरी स्त्रियाँ तुम्हारे लिए ह़लाल कर दी गई हैं कि तुम अपना धन (महर) खर्च करके उनसे विवाह कर लो (बशर्ते कि तुम्हारा उद्देश्य) सतीत्व की रक्षा हो, अवैध तरीके से काम वासना की तृप्ति न हो। फिर उन औरतों में से जिनसे तुम लाभ उठाओ, उन्हें उनका महर अवश्य चुका दो। तथा यदि महर निर्धारित करने के बाद आपसी सहमति (से कोई कमी-बेशी) कर लो, तो तुमपर कोई गुनाह नहीं है। निःसंदेह अल्लाह सब कुछ जानने वाला, पूर्ण हिकमत वाला है।
21. दासी वह स्त्री जो युद्ध में बंदी बनाई गई हो। उससे एक बार मासिक धर्म आने के पश्चात् संभोग करना उचित है, और उसे मुक्त करके उससे विवाह कर लेने का बड़ा पुण्य है। (इब्ने कसीर) 22. अर्थात तुम्हारे लिए नियम बना दिया गया है।
और तुममें से जो व्यक्ति ईमान वाली आज़ाद स्त्रियों से विवाह करने की क्षमता न रखे, वह तुम्हारे हाथों में आई हुई तुम्हारी ईमान वाली दासियों से विवाह कर ले। अल्लाह तुम्हारे ईमान को भली-भाँति जानता है। तुम सब परस्पर एक ही हो।[23] अतः तुम उनके मालिकों की अनुमति से उन (दासियों) से विवाह कर लो और नियमानुसार उन्हें उनका महर चुका दो। जबकि वे सतीत्व की रक्षा करने वाली हों, खुल्लम खुल्ला व्यभिचार करने वाली न हों, तथा गुप्त रूप से व्यभिचार के लिए मित्र रखने वाली न हों। फिर यदि वे विवाहित हो जाने के बाद व्यभिचार करें, तो उनपर आज़ाद स्त्रियों का आधा[24] दंड है। यह (दासियों से विवाह की अनुमति) तुममें से उसके लिए है, जिसे व्यभिचार में पड़ने का डर हो, और तुम्हारा धैर्य से काम लेना तुम्हारे लिए बेहतर है और अल्लाह अत्यंत क्षमाशील, बड़ा दयावान् है।
23. तुम आपस में एक ही हो, अर्थात मानवता में बराबर हो। ज्ञातव्य है कि इस्लाम से पहले दासिता की परंपरा पूरे विश्व में फैली हुई थी। बलवान जातियाँ निर्बलों को दास बनाकर उनके साथ हिंसक व्यवहार करती थीं। क़ुरआन ने दासिता को केवल युद्ध के बंदियों में सीमित कर दिया। और उन्हें भी अर्थदंड लेकर अथवा उपकार करके मुक्त करने की प्रेरणा दी। फिर उनके साथ अच्छे व्यवहार पर बल दिया। तथा ऐसे आदेश और नियम बना दिए कि दासता, दासता नहीं रह गई। यहाँ इसी बात पर बल दिया गया है कि दासियों से विवाह कर लेने में कोई दोष नहीं। इसलिए कि मानवता में सब बराबर हैं, और प्रधानता का मापदंड ईमान तथा सत्कर्म है। 24. अर्थात पचास कोड़े।
अल्लाह चाहता है कि तुम्हारे लिए स्पष्ट कर दे और तुम्हें उन लोगों के तरीक़ों का मार्गदर्शन करे जो तुमसे पहले हुए हैं और तुम्हारी तौबा क़बूल करे। अल्लाह सब कुछ जानने वाला, हिकमत वाला है।
और अल्लाह तो यह चाहता है कि तुम्हारी तौबा क़बूल करे तथा जो लोग इच्छाओं के पीछे पड़े हुए हैं, वे चाहते हैं कि तुम (हिदायत के मार्ग से) बहुत दूर हट[25] जाओ।
ऐ ईमान वालो! आपस में एक-दूसरे का धन अवैध रूप से न खाओ, सिवाय इसके कि वह तुम्हारी आपसी सहमति से कोई व्यापार हो। तथा अपने आपको क़त्ल[27] न करो। निःसंदेह अल्लाह तुमपर अति दयावान् है।
27. इसका अर्थ यह भी किया गया है कि अवैध कर्मों द्वारा अपना विनाश न करो, तथा यह भी कि आपस में रक्तपात न करो, और ये तीनों ही अर्थ सह़ीह़ हैं। (तफ़्सीर क़ुर्तुबी)
यदि तुम, उन बड़े पापों से बचते रहे, जिनसे तुम्हें रोका जा रहा है, तो हम तुम्हारे (छोटे) गुनाहों को क्षमा कर देंगे और तुम्हें प्रतिष्ठित स्थान में दाख़िल करेंगे।
तथा अल्लाह ने जिस चीज़ के द्वारा तुममें से कुछ को दूसरों पर प्रतिष्ठा प्रदान की है, उसकी कामना न करो। पुरुषों के लिए उसमें से हिस्सा है, जो उन्होंने कमाया[27] और स्त्रियों के लिए उसमें से हिस्सा है, जो उन्होंने कमाया है। तथा अल्लाह से उसका अनुग्रह माँगते रहो। निःसंदेह, अल्लाह सब कुछ जानने वाला है।
27. क़ुरआन उतरने से पहले संसार का यह साधारण विश्वव्यापी विचार था कि नारी का कोई स्थायी अस्तित्व नहीं है। उसे केवल पुरुषों की सेवा और काम वासना के लिए बनाया गया है। क़ुरआन इस विचार के विरुद्ध यह कहता है कि अल्लाह ने मानव को नर तथा नारी दो लिंगों में विभाजित कर दिया है। और दोनों ही समान रूप से अपना-अपना अस्तित्व, अपने-अपने कर्तव्य तथा कर्म रखते हैं। और जैसे आर्थिक कार्यालय के लिए एक लिंग की आवश्यक्ता है, वैसे ही दूसरे की भी है। मानव के सामाजिक जीवन के लिए यह दोनों एक दूसरे के सहायक हैं।
और हमने तुममें से हर एक के हक़दार बना दिए हैं, जो माता-पिता और क़रीबी रिश्तेदारों की छोड़ी हुई संपत्ति के वारिस होंगे। तथा जिनसे तुमने समझौता[28] किया हो, तो उन्हें उनका हिस्सा दो। निःसंदेह अल्लाह हमेशा प्रत्येक वस्तु से सूचित है।
28. यह संधि इस्लाम के आरंभिक युग में थी, जिसे (मीरास की आयत से) निरस्त कर दिया गया। (इब्ने कसीर)
पुरुष स्त्रियों के संरक्षक[29] हैं, इस कारण कि अल्लाह ने उनमें से कुछ को कुछ पर फ़ज़ीलत दी है तथा इस कारण कि पुरुषों ने अपना धन ख़र्च किया है। अतः अच्छी औरतें आज्ञाकारी होती हैं तथा अपने पतियों की अनुपस्थिति में अल्लाह के संरक्षण में उनके अधिकारों की रक्षा करती हैं। फिर तुम्हें जिन औरतों की अवज्ञा का डर हो, उन्हें समझाओ और सोने के स्थानों में उनसे अलग रहो तथा उन्हें मारो। फिर यदि वे तुम्हारी बात मानें, तो उनके विरुद्ध कोई रास्ता न ढूँढो। निःसंदेह अल्लाह सर्वोच्च, सबसे बड़ा है।
29. आयत का भावार्थ यह है कि पारिवारिक जीवन के प्रबंध के लिए एक प्रबंधक होना आवश्यक है। और इस प्रबंध तथा व्यवस्था का भार पुरुष पर रखा गया है। जो कोई विशेषता नहीं, बल्कि एक भार है। इसका यह अर्थ नहीं कि जन्म से पुरुष की स्त्री पर कोई विशेषता है। प्रथम आयत में यह आदेश दिया गया है कि यदि पत्नी, पति की अनुगामी न हो, तो वह उसे समझाए। परंतु यदि दोष पुरुष का हो, तो दोनों के बीच मध्यस्थता द्वारा संधि कराने की प्रेरणा दी गई है।
और यदि तुम्हें[30] दोनों के बीच अलगाव का डर हो, तो एक मध्यस्थ पति के घराने से तथा एक मध्यस्थ पत्नी के घराने से नियुक्त करो, यदि दोनों (मध्यस्थ) सुधार करना चाहेंगे, तो अल्लाह दोनों (पति-पत्नी) के बीच मेल का रास्ता निकाल देगा। निःसंदेह अल्लाह सब कुछ जानने वाला और हर चीज़ की ख़बर रखने वाला है।
30. इसमें पति-पत्नी के संरक्षकों को संबोधित किया गया है।
तथा अल्लाह की इबादत करो और किसी चीज़ को उसका साझी न बनाओ तथा माता-पिता, रिश्तेदारों, अनाथों, निर्धनों, नातेदार पड़ोसी, अपरिचित पड़ोसी, साथ रहने वाले साथी, यात्री और अपने दास-दासियों के साथ अच्छा व्यवहार करो। निःसंदेह अल्लाह उससे प्रेम नहीं करता, जो इतराने वाला, डींगें मारने वाला हो।
जो खुद कृपणता करते हैं तथा दूसरों को भी कृपणता का आदेश देते हैं और उस (नेमत) को छिपाते हैं, जो अल्लाह ने उन्हें प्रदान की है। और हमने काफ़िरों के लिए अपमानकारी अज़ाब तैयार कर रखा है।
तथा जो लोग अपना धन, लोगों को दिखाने के लिए दान करते हैं और अल्लाह तथा अंतिम दिन पर ईमान नहीं रखते। तथा शैतान जिसका साथी हो, तो वह बहुत बुरा साथी[31] है।
31. आयत 36 से 38 तक साधारण सहानुभूति और उपकार का आदेश दिया गया है कि अल्लाह ने जो धन-धान्य तुमको दिया, उससे मानव की सहायता और सेवा करो। जो व्यक्ति अल्लाह पर ईमान रखता हो उसका हाथ अल्लाह की राह में दान करने से कभी नहीं रुक सकता। फिर भी दान करो तो अल्लाह के लिए करो, दिखावे और नाम के लिए न करो। जो नाम के लिए दान करता है, वह अल्लाह तथा आख़िरत पर सच्चा ईमान (विश्वास) नहीं रखता।
और उनका क्या बिगड़ जाता, यदि वे अल्लाह तथा अन्तिम दिन पर ईमान रखते और अल्लाह ने उन्हें जो कुछ दिया है, उसमें से खर्च करते? और अल्लाह उन्हें भली-भाँति जानता है।
अल्लाह एक कण बराबर भी किसी पर अत्याचार नहीं करता, यदि (किसी ने) कोई नेकी (की) हो, तो उसे कई गुना बढ़ा देता है तथा अपने पास से बड़ा बदला प्रदान करता है।
तो उस समय क्या हाल होगा, जब हम प्रत्येक उम्मत (समुदाय) से एक गवाह लाएँगे और (ऐ नबी!) हम आपको इनपर गवाह (बनाकर) लाएँगे?[32]
32. आयत का भावार्थ यह है कि प्रलय के दिन अल्लाह प्रत्येक समुदाय के रसूल को उनके कर्म का साक्षी बनाएगा। इस प्रकार मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को भी अपने समुदाय पर साक्षी बनाएगा। तथा सब रसूलों पर कि उन्होंने अपने पालनहार का संदेश पहुँचाया है। (इब्ने कसीर)
ऐ ईमान वालो! जब तुम नशे[34] (की हालत) में हो, तो नमाज़ के क़रीब न जाओ, यहाँ तक कि जो कुछ ज़बान से कह रहे हो, उसे (ठीक) से समझने लगो और न जनाबत[35] की हालत में, (मस्जिदों के क़रीब जाओ) यहाँ तक कि स्नान कर लो। परंतु रास्ता पार करते हुए (चले जाओ, तो कोई बात नहीं)। यदि तुम बीमार हो अथवा यात्रा में हो या तुममें से कोई शौच से आए या तुमने स्त्रियों से सहवास किया हो, फिर पानी न पा सको, तो पवित्र मिट्टी से तयम्मुम[36] कर लो; उसे अपने चेहरे तथा हाथों पर फेर लो। निःसंदेह अल्लाह माफ करने वाला और क्षमा करने वाला है।
34. यह आदेश इस्लाम के आरंभिक युग का है, जब मदिरा को वर्जित नहीं किया गया था। (इब्ने कसीर) 35. जनाबत का अर्थ वीर्यपात के कारण मलिन तथा अपवित्र होना है। 36. अर्थात यदि जल का अभाव हो, अथवा रोग के कारण जल प्रयोग हानिकारक हो, तो वुजू तथा स्नान के स्थान पर तयम्मुम कर लो।
(ऐ नबी!) यहूदियों में से कुछ लोग ऐसे हैं, जो शब्दों को उनके (वास्तविक) स्थानों से फेर देते हैं और (आपसे) कहते हैं कि "हमने सुन लिया तथा (आपकी) अवज्ञा की" और "आप सुनिए, आप सुनाए न जाएँ!" तथा अपनी ज़ुबानें मोड़कर और सत्य धर्म पर लांक्षन लगाते हुए "राइना" कहते हैं। हालाँकि, यदि वे "हमने सुन लिया और आज्ञा का पालन किया" तथा "आप सुनिए और हमें देखिए" कहते, तो उनके लिए उत्तम तथा अधिक न्यायसंगत होता। परन्तु, अल्लाह ने उनके कुफ़्र के कारण उन्हें धिक्कार दिया है। अतः वे बहुत कम ईमान लाते हैं।
ऐ किताब वालो! उस (क़ुरआन) पर ईमान लाओ, जिसे हमने उन (पुस्तकों) की पुष्टि करने वाला बनाकर उतारा है, जो तुम्हारे पास मौजूद हैं, इससे पहले कि हम (लोगों के) चेहरे बिगाड़कर उलटा कर दें अथवा उन्हें वैसे ही धिक्कारें,[38] जैसे शनिवार वालों को धिक्कारा था। और अल्लाह का आदेश पूरा होकर रहने वाला है।
38. मदीने के यहूदियों का यह दुर्भाग्य था कि जब नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से मिलते, तो द्विअर्थक तथा संदिग्ध शब्द बोलकर दिल की भड़ास निकालते, उसी पर उन्हें यह चेतावनी दी जा रही है। शनिवार वाले, अर्थात जिन को शनिवार के दिन शिकार से रोका गया था। और जब वे नहीं माने, तो उन्हें बंदर बना दिया गया।
निःसंदेह, अल्लाह यह क्षमा नहीं करेगा कि उसका साझी बनाया जाए[39] और इसके सिवा जिसे चाहेगा, क्षमा कर देगा। और जिसने अल्लाह का साझी बनाया, उसने बहुत बड़ा पाप गढ़ लिया।
39. अर्थात पूजा, अराधना तथा अल्लाह के विशिष्ट गुणों-कर्मों में किसी वस्तु या व्यक्ति को साझी बनाना घोर अक्षम्य पाप है, जो सत्धर्म के मूलाधार एकेश्वरवाद के विरुद्ध, और अल्लाह पर मिथ्यारोप है। यहूदियों ने अपने धर्माचार्यों तथा पादरियों के विषय में यह अंधविश्वास बना लिया था कि उनकी बात को धर्म समझ कर उन्हीं का अनुपालन कर रहे थे। और मूल पुस्तकों को त्याग दिया था, क़ुरआन इसी को शिर्क कहता है, वह कहता है कि सभी पाप क्षमा किए जा सकते हैं, परंतु शिर्क के लिए क्षमा नहीं, क्योंकि इससे मूल धर्म की नींव ही हिल जाती है। और मार्गदर्शन का केंद्र ही बदल जाता है।
क्या आपने उन्हें नहीं देखा, जो अपने आपको पवित्र कहते हैं? बल्कि अल्लाह ही जिसे चाहे, पवित्र बनाता है और उन पर एक धागे के बराबर भी अत्याचार नहीं किया जाएगा।
(ऐ नबी!) क्या आपने उन लोगों को नहीं देखा, जिन्हें पुस्तक का कुछ भाग दिया गया? वे मूर्तियों तथा शैतान पर ईमान (विश्वास) रखते हैं और काफ़िरों[41] के बारे में कहते हैं कि ये ईमान वालों से अधिक सीधी डगर पर हैं।
41. अर्थात मक्का के मूर्ति के पुजारियों के बारे में। मदीना के यहूदियों की यह दशा थी कि वह सदैव मूर्ति पूजा के विरोधी रहे और उसका अपमान करते रहे। परंतु अब मुसलमानों के विरोध में उनकी प्रशंसा करते और कहते कि मूर्ति पूजकों का आचरण और स्वभाव अधिक अच्छा है।
बल्कि वे लोगों से[42] उस पर ईर्ष्या करते हैं जो अल्लाह ने उन्हें अपने अनुग्रह से प्रदान किया है। तो हमने (पहले भी) इबराहीम के वंशज को पुस्तक तथा ह़िकमत दी है और हमने उन्हें विशाल राज्य प्रदान किया है।
42. अर्थात मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और मुसलमानों से इस बात पर ईर्ष्या करते हैं कि अल्लाह ने आप को नबी बना दिया तथा मुसलमानों को ईमान दे दिया।
वास्तव में, जिन लोगों ने हमारी आयतों के साथ कुफ़्र किया, हम उन्हें नरक में झोंक देंगे। जब भी उनकी खालें पक जाएँगी (जल चुकी होंगी), हम उनकी खालें बदल देंगे, ताकि वे यातना चखते रहें। निःसंदेह अल्लाह प्रभुत्वशाली, हिकमत वाला है।
और जो लोग ईमान लाए तथा अच्छे कर्म किए, हम उन्हें ऐसी जन्नतों (बागों) में दाख़िल करेंगे, जिनके नीचे नहरें बह रही होंगी, जिनमें वे सदैव रहेंगे। उनके लिए उनमें पवित्र पत्नियाँ होंगी और हम उन्हें घनी छाँव में रखेंगे।
अल्लाह[43] तुम्हें आदेश देता है कि अमानतों को उनके मालिकों के हवाले कर दो और जब तुम लोगों के बीच फैसला करो, तो न्याय के साथ फैसला करो। निश्चय अल्लाह तुम्हें कितनी अच्छी नसीहत करता है। निःसंदेह अल्लाह सब कुछ सुनने, सब कुछ देखने वाला है।
43. यहाँ से ईमान वालों को संबोधित किया जा रहा है कि सामाजिक जीवन की व्यवस्था के लिए मूल नियम यह है कि जिसका जो भी अधिकार हो, उसे स्वीकार किया जाए और दिया जाए। इसी प्रकार कोई भी निर्णय बिना पक्षपात के, न्याय के साथ किया जाए, किसी प्रकार कोई अन्याय नहीं होना चाहिए।
ऐ ईमान वालो! अल्लाह का आज्ञापालन करो और रसूल का आज्ञापालन करो और अपने में से अधिकार वालों (शासकों) का। फिर यदि तुम आपस में किसी चीज़ में मतभेद कर बैठो, तो उसे अल्लाह और रसूल की ओर लौटाओ, यदि तुम अल्लाह तथा अंतिम दिन (परलोक) पर ईमान रखते हो। यह (तुम्हारे लिए) बहुत बेहतर है और परिणाम की दृष्टि से बहुत अच्छा है।
(ऐ नबी!) क्या आपने उन लोगों को नहीं देखा, जिनका यह दावा है कि जो कुछ आपकी ओर उतारा गया है और जो कुछ आपसे पहले उतारा गया है उसपर वे ईमान रखते हैं, किंतु वे चाहते हैं कि अपने विवाद के निर्णय के लिए ताग़ूत (अल्लाह की शरीयत के अलावा से फैसला करने वाले) के पास जाएँ, जबकि उन्हें उस (ताग़ूत) का इनकार करने का आदेश दिया गया है? और शैतान चाहता है कि उन्हें सच्चे धर्म से बहुत दूर[44] कर दे।
44. आयत का भावार्थ यह है कि जो धर्म विधान क़ुरआन तथा सुन्नत के सिवा किसी अन्य विधान से अपना निर्णय चाहते हों, उनका ईमान का दावा मिथ्या है।
फिर उस समय उनका क्या हाल होता है जब उनके करतूतों के कारण उनपर कोई आपदा आ पड़ती है, फिर वे आपके पास आकर अल्लाह की क़समें खाते हैं कि हमारा इरादा[45] तो केवल भलाई तथा (आपस में) मेल कराना था।
45. आयत का भावार्थ यह है कि मुनाफ़िक़ ईमान का दावा तो करते थे, परंतु अपने विवाद चुकाने के लिए इस्लाम के विरोधियों के पास जाते, फिर जब कभी उन की दो रंगी पकड़ी जाती तो नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास आ कर मिथ्या शपथ लेते। और यह कहते कि हम केवल विवाद सुलझाने के लिए उनके पास चले गए थे। (इब्ने कसीर)
ये वो लोग हैं जिनके दिलों की बातें अल्लाह भली-भाँति जानता है। अतः आप उनकी उपेक्षा करें और उन्हें नसीहत करते रहें और उनसे ऐसी प्रभावकारी बात कहें जो उनके दिलों में उतर जाए।
और हमने जो भी रसूल भेजा, वह इसलिए (भेजा) कि अल्लाह की अनुमति से उसका आज्ञापालन किया जाए। और यदि वे लोग, जब उन्हों ने अपनी जानों पर अत्याचार किया था, आपके पास आते, फिर अल्लाह से क्षमा याचना करते और रसूल भी उनके लिए क्षमा याचना करते, तो वे अवश्य अल्लाह को बहुत तौबा क़बूल करने वाला, अत्यन्त दयावान पाते।
तो (ऐ नबी!) आपके पालनहार की क़सम! वे कभी ईमान वाले नहीं हो सकते, जब तक अपने आपस के विवाद में आपको निर्णायक[46] न बनाएँ, फिर आप जो निर्णय कर दें, उससे अपने दिलों में तनिक भी तंगी महसूस न करें और उसे पूरी तरह से स्वीकार कर लें।
46. यह आदेश आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के जीवन में था। तथा आपके निधन के पश्चात् अब आपकी सुन्नत से निर्णय लेना है।
और यदि हम उनपर[47] अनिवार्य कर देते कि अपने आपको को क़त्ल करो या अपने घरों से निकल जाओ, तो उनमें से कुछ लोगों के सिवा कोई भी ऐसा नहीं करता। और यदि वे लोग उसका पालन करते जिसकी उन्हें नसीहत की जाती है, तो यह उनके लिए बेहतर और (सच्चे रास्ते पर) अधिक दृढ़ता का कारण होता।
तथा जो भी अल्लाह और रसूल का आज्ञापालन करेगा, वह उन लोगों के साथ होगा, जिन्हें अल्लाह ने पुरस्कृत किया है, अर्थात नबियों, सिद्दीक़ों (सत्यवादियों), शहीदों और सदाचारियों के साथ। और ये लोग सबसे अच्छे साथी हैं।
और निःसंदेह तुममें कोई ऐसा[49] भी है, जो (दुश्मन से लड़ाई के लिए निकलने में) निश्चय देर लगाएगा। फिर यदि (युद्ध के दौरान) तुमपर कोई आपदा आ पड़े, तो कहेगा : अल्लाह ने मुझपर बड़ा उपकार किया कि मैं उनके साथ उपस्थित नहीं था।
49. यहाँ युद्ध से संबंधित अब्दुल्लाह बिन उबय्य जैसे मुनाफ़िक़ों की दशा का वर्णन किया जा रहा है। (इब्ने कसीर)
और यदि तुम्हें अल्लाह का अनुग्रह प्राप्त हो जाए, तो वह अवश्य इस तरह कहेगा मानो तुम्हारे और उसके बीच कोई मित्रता ही नहीं थी कि ऐ काश! मैं भी उनके साथ होता, तो बड़ी सफलता प्राप्त कर लेता!
तो जो लोग आख़िरत के बदले सांसारिक जीवन को बेच चुके हैं, उन्हें अल्लाह के मार्ग[50] में लड़ना चाहिए। और जो अल्लाह के मार्ग में युद्ध करेगा, चाहे वह मारा जाए अथवा विजयी हो जाए, तो हम उसे बड़ा बदला प्रदान करेंगे।
50. अल्लाह के धर्म को ऊँचा करने, और उसकी रक्षा के लिए। किसी स्वार्थ अथवा किसी देश और सांसारिक धन-धान्य की प्राप्ति के लिए नहीं।
और तुम्हें क्या हो गया है कि अल्लाह के मार्ग में तथा उन कमज़ोर पुरुषों, स्त्रियों और बच्चों को छुटकारा दिलाने के लिए युद्ध नहीं करते, जो पुकार रहे हैं कि ऐ हमारे पालनहार! हमें इस नगर[51] से निकाल दे, जिसके वासी अत्याचारी हैं और हमारे लिए अपनी ओर से कोई रक्षक बना दे और हमारे लिए अपनी ओर से कोई सहायक बना दे?!
51. अर्थात मक्का नगर से। यहाँ इस तथ्य को उजागर कर दिया गया है कि क़ुरआन ने युद्ध का आदेश इसलिए नहीं दिया है कि दूसरों पर अत्याचार किया जाए। बल्कि नृशंसितों तथा निर्बलों की सहायता के लिए दिया है। इसीलिए वह बार-बार कहता है कि "अल्लाह की राह में युद्ध करो", अपने स्वार्थ और मनोकांक्षाओं के लिए नहीं। न्याय तथा सत्य की स्थापना और सुरक्षा के लिए युद्ध करो।
जो लोग ईमान लाए, वे अल्लाह के मार्ग में युद्ध करते हैं और जो काफ़िर हैं, वे ताग़ूत (शैतान) के मार्ग में युद्ध करते हैं। अतः तुम शैतान के मित्रों से युद्ध करो। निःसंदेह शैतान की चाल कमज़ोर होती है।
(ऐ नबी!) क्या आपने उनका हाल नहीं देखा, जिनसे कहा गया था कि अपने हाथों को (युद्ध से) रोके रखो, नमाज़ क़ायम करो और ज़कात दो? परंतु जब उनके ऊपर युद्ध को अनिवार्य कर दिया गया, तो देखा गया कि उनमें से एक समूह लोगों से ऐसे डर रहा है, जैसे अल्लाह से डरता है या उससे भी अधिक। तथा वे कहने लगे कि ऐ हमारे पालनहार! तूने हमारे ऊपर युद्ध को क्यों अनिवार्य कर दिया? क्यों न हमें थोड़े दिनों का और अवसर दिया? कह दें कि सांसारिक सुख बहुत थोड़ा है और परलोक उसके लिए अधिक अच्छा है, जो अल्लाह[52] से डरे। और तुमपर खजूर की गुठली के धागे के बराबर भी अत्याचार नहीं किया जाएगा।
52. अर्थात परलोक का सुख उसके लिए है, जिसने अल्लाह के आदेशों का पालन किया।
तुम जहाँ भी रहो, तुम्हें मौत आ पकड़ेगी, यद्यपि मज़बूत दुर्गों में क्यों न रहो। तथा उन्हें यदि कोई भलाई पहुँचती है, तो कहते हैं कि यह अल्लाह की ओर से है और यदि कोई बुराई पहुँचती है, तो कहते हैं कि यह आपके कारण है। (ऐ नबी!) उनसे कह दें कि सब अल्लाह की ओर से है। इन लोगों को क्या हो गया है कि कोई बात समझने के क़रीब ही नहीं[53] आते?!
53. भावार्थ यह है कि जब मुसलमानों को कोई हानि हो जाती, तो मुनाफ़िक़ तथा यहूदी कहते : यह सब नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के कारण हुआ। क़ुरआन कहता है कि सब कुछ अल्लाह की ओर से होता है। अर्थात उसने प्रत्येक दशा तथा परिणाम के लिए कुछ नियम बना दिए हैं। और जो कुछ भी होता है, वह उन्हीं दशाओं का परिणाम होता है। अतः तुम्हारी ये बातें जो कह रहे हो, बड़ी अज्ञानता की बातें हैं।
तुझे जो भलाई पहुँचती है, वह अल्लाह की ओर से है तथा जो बुराई पहुँचती है, वह ख़ुद तुम्हारे (बुरे कर्मों के) कारण है और हमने आप को सभी लोगों के लिए रसूल (संदेष्टा) बनाकर भेजा[54] है और (इस बात के लिए) अल्लाह की गवाही काफ़ी है।
54. इसका भावार्थ यह है कि तुम्हें जो कुछ हानि होती है, वह तुम्हारे कुकर्मों का दुष्परिणाम होता है। इसका आरोप दूसरे पर न धरो। इस्लाम के नबी तो अल्लाह के रसूल हैं और रसूल का काम यही है कि संदेश पहुँचा दें, और तुम्हारा कर्तव्य है कि उनके सभी आदेशों का अनुपालन करो। फिर यदि तुम अवज्ञा करो, और उसका दुष्परिणाम सामने आए, तो दोष तुम्हारा है, न कि इस्लाम के नबी का।
जिसने रसूल की आज्ञा का पालन किया, (वास्तव में) उसने अल्लाह की आज्ञा का पालन किया तथा जिसने मुँह फेर लिया, तो (ऐ नबी!) हमने आपको उनपर संरक्षक बनाकर नहीं भेजा[55] है।
55. अर्थात आपका कर्तव्य अल्लाह का संदेश पहुँचाना है, उनके कर्मों तथा उन्हें सीधी डगर पर लगा देने का दायित्व आप पर नहीं है।
तथा वे (आपके सामने) कहते हैं कि हम आज्ञाकारी हैं। परन्तु, जब वे आपके पास से चले जाते हैं, तो उनमें से एक गिरोह, आपकी बात के विरुद्ध रात में षड्यंत्र करता है। जो कुछ वे षड्यंत्र करते है, अल्लाह उसे लिख रहा है। अतः आप उनसे मुँह फेर लें और अल्लाह पर भरोसा रखें, तथा अल्लाह का कार्यसाधक होना काफ़ी है।
और जब उनके पास सुरक्षा या भय की कोई सूचना आती है, तो उसे चारों ओर फैला देते हैं। हालाँकि, यदि वे उसे अल्लाह के रसूल तथा अपने में से प्राधिकारियों की ओर लौटा देते, तो उनमें से जो लोग उसका सही निष्कर्ष निकाल सकते हैं, उसकी वास्तविकता को अवश्य जान लेते। और यदि तुमपर अल्लाह की अनुकंपा तथा दया न होती, तो तुममें से कुछ को छोड़कर, सब शैतान का अनुसरण करने लगते।[57]
57. इस आयत द्वारा यह निर्देश दिया जा रहा है कि जब भी साधारण शांति या भय की कोई सूचना मिले तो उसे अधिकारियों तथा शासकों तक पहुँचा दिया जाए।
अतः (ऐ नबी!) आप अल्लाह के मार्ग में युद्ध करें। आपपर अपने सिवा किसी और की ज़िम्मेदारी नहीं है। तथा ईमान वालों को (युद्ध के लिए) उभारें। संभव है कि अल्लाह काफ़िरों का बल तोड़ दे। अल्लाह बड़ा शक्तिशाली और बहुत कठोर दंड देने वाला है।
जो अच्छी सिफ़ारिश करेगा, उसके लिए उसमें से हिस्सा होगा तथा जो बुरी सिफ़ारिश करेगा, उसके लिए उसमें से हिस्सा[58] होगा, और अल्लाह प्रत्येक चीज़ का साक्षी व संरक्षक है।
58. आयत का भावार्थ यह है कि अच्छाई तथा बुराई में किसी की सहायता करने का भी पुण्य और पाप मिलता है।
तुम्हें क्या हो गया है कि मुनाफ़िक़ों के बारे में दो पक्ष[59] बन गए हो, जबकि अल्लाह ने उनकी करतूतों के कारण उन्हें उल्टा फेर दिया है? क्या तुम उसे सही रास्ता दिखाना चाहते हो, जिसे अल्लाह ने पथभ्रष्ट कर दिया है? और जिसे अल्लाह पथभ्रष्ट कर दे, तुम उसके लिए कदापि कोई रास्ता नहीं पाओगे।
59. मक्का वासियों में कुछ अपने स्वार्थ के लिए मौखिक मुसलमान हो गए थे, और जब युद्ध आरंभ हुआ तो उनके बारे में मुसलमानों के दो विचार हो गए। कुछ उन्हें अपना मित्र और कुछ उन्हें अपना शत्रु समझ रहे थे। अल्लाह ने यहाँ बता दिया कि वे लोग मुनाफ़िक़ हैं। जब तक मक्का से हिजरत करके मदीना में न आ जाएँ, और शत्रु ही के साथ रह जाएँ, उन्हें भी शत्रु समझा जाएगा। ये वह मुनाफ़िक़ नहीं हैं जिनकी चर्चा पहले की गई है, ये मक्का के विशेष मुनाफ़िक़ हैं, जिनसे युद्ध की स्थिति में कोई मित्रता की जा सकती थी, और न ही उनसे कोई संबंध रखा जा सकता था।
(ऐ ईमान वालो!) वे चाहते हैं कि जिस तरह वे काफ़िर हो गए, तुम भी काफ़िर हो जाओ ताकि तुम उनके बराबर हो जाओ। अतः तुम उनमें से किसी को मित्र न बनाओ, जब तक वे अल्लाह की राह में हिजरत न करें। यदि वे इससे मुँह फेरें, तो जहाँ भी पाओ, उन्हें पकड़ो और क़त्ल करो और उनमें से किसी को अपना मित्र और सहायक न बनाओ।
परंतु उनमें से जो लोग किसी ऐसी क़ौम से जा मिलें, जिनके और तुम्हारे बीच समझौता हो, या वे लोग जो तुम्हारे पास इस अवस्था में आएँ कि उनके दिल इस बात से तंग हो रहे हों कि वे तुमसे युद्ध करें अथवा (तुम्हारे साथ मिलकर) अपनी जाति से युद्ध करें। और यदि अल्लाह चाहता, तो उन्हें तुमपर हावी कर देता, फिर वे तुमसे ज़रूर युद्ध करते। अतः यदि वे तुमसे अलग रहें और तुमसे युद्ध न करें और संधि के लिए तुम्हारी ओर हाथ बढ़ाएँ, तो अल्लाह ने उनके विरुद्ध् तुम्हारे लिए (युद्ध का) कोई रास्ता नहीं बनाया[60] है।
60. अर्थात इस्लाम में युद्ध का आदेश उनके विरुद्ध दिया गया है, जो इस्लाम के विरुद्ध युद्ध कर रहे हों। अन्यथा, उनसे युद्ध करने का कोई कारण नहीं रह जाता क्योंकि मूल चीज़ शांति तथा संधि है, युद्ध और हत्या नहीं।
तथा तुम कुछ दूसरे लोगों को ऐसा भी पाओगे, जो चाहते हैं कि तुम्हारी ओर से निश्चिन्त रहें और अपनी क़ौम की ओर से भी निश्चिन्त रहें। परन्तु जब भी वे उपद्रव की ओर लौटाए जाते हैं, तो उसमें औंधे मुँह जा गिरते हैं। यदि वे तुमसे अलग-थलग न रहें और तुम्हारी ओर संधि का हाथ न बढ़ाएँ, और अपने हाथ न रोकें, तो तुम उन्हें पकड़ो और क़त्ल करो जहाँ कहीं भी पाओ। यही लोग हैं, जिनके विरुद्ध हमने तुम्हें स्पष्ट तर्क दिया है।
किसी ईमान वाले के लिए शोभनीय नहीं कि वह किसी ईमान वाले की हत्या कर दे, परंतु यह कि चूक से[61] ऐसा हो जाए। जो व्यक्ति किसी ईमान वाले की गलती से हत्या कर दे, वह एक ईमान वाला दास मुक्त करे और उस (हत) के वारिसों को दियत (हत्या का अर्थदंड)[62] पहुँचाए, परंतु यह कि वे क्षमा कर दें। फिर यदि वह (हत) तुम्हारी शत्रु क़ौम से हो और वह (ख़ुद) ईमान वाला हो, तो केवल एक ईमान वाला दास मुक्त करना ज़रूरी है। और यदि वह ऐसी क़ौम से हो, जिसके और तुम्हारे बीच समझौता हो, तो उसके घर वालों को हत्या का अर्थदंड पहुँचाया जाए तथा एक ईमान वाला दास मुक्त करना ज़रूरी है। फिर जो (दास) न पाए, वह निरंतर दो महीने रोज़े रखे। अल्लाह की ओर से (उसके पाप की) यही क्षमा है और अल्लाह सब कुछ जानने वाला, हिकमत वाला है।
61. अर्थात निशाना चूक कर उसे लग जाए। 62. यह अर्थदंड सौ ऊँट अथवा उनका मूल्य है। आयत का भावार्थ यह है कि जिनकी हत्या करने का आदेश दिया गया है, वह केवल इस लिए दिया गया है कि उन्होंने इस्लाम तथा मुसलमानों के विरुद्ध युद्ध आरंभ कर दिया है। अन्यथा, यदि युद्ध की स्थिति न हो, तो हत्या एक महापाप है। और किसी मुसलमान के लिए कदापि यह वैध नहीं कि किसी मुसलमान की, या जिससे समझौता हो, उसकी जान बूझकर हत्या कर दे। संधि मित्र से अभिप्राय वे सभी ग़ैर मुस्लिम हैं, जिनसे मुसलमानों का युद्ध न हो, संधि तथा संविदा हो। फिर यदि चूक से किसी ने किसी की हत्या कर दी, तो उसका यह आदेश है, जो इस आयत में बताया गया है। यह ज्ञातव्य है कि क़ुरआन ने केवल दो ही स्थिति में हत्या को उचित किया है : युद्ध की स्थिति में, अथवा नियमानुसार किसी अपराधी की हत्या की जाए। जैसे हत्यारे को हत्या के बदले हत किया जाए।
और जो किसी ईमान वाले की जानबूझकर हत्या कर दे, उसका बदला नरक है, जिसमें वह हमेशा रहेगा और उसपर अल्लाह का क्रोध तथा धिक्कार है और अल्लाह ने उसके लिए बड़ी यातना तैयार कर रखी है।
ऐ ईमान वालो! जब तुम अल्लाह के मार्ग में (जिहाद के लिए) निकलो, तो छानबीन[63] कर लिया करो। और जो तुम्हें सलाम[64] करे, उसे यह न कहो कि तुम ईमान वाले नहीं हो। तुम सांसारिक जीवन का सामान चाहते हो, तो अल्लाह के पास बहुत-सी ग़नीमतें हैं। पहले तुम भी ऐसे[65] ही थे, फिर अल्लाह ने तुमपर उपकार किया। अतः ठीक से छानबीन कर लिया करो। निःसंदेह अल्लाह तुम्हारे कर्मों से सूचित है।
63. अर्थात यह कि वह शत्रु हैं या मित्र हैं। 64. सलाम करना मुसलमान होने का एक लक्षण है। 65. अर्थात इस्लाम के शब्द के सिवा तुम्हारे पास इस्लाम का कोई चिह्न नहीं था। इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा कहते हैं कि रात के समय एक व्यक्ति यात्रा कर रहा था। जब उससे कुछ मुसलमान मिले तो उसने अस्सलामु अलैकुम कहा। फिर भी एक मुसलमान ने उसे झूठा समझकर मार दिया। इसी पर यह आयत उतरी। जब नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को इसका पता चला, तो आप बहुत नाराज़ हुए। (इब्ने कसीर)
बिना किसी उज़्र (कारण) के बैठे रहने वाले मोमिन और अल्लाह की राह में अपने धनों और प्राणों के साथ जिहाद करने वाले, बराबर नहीं हो सकते। अल्लाह ने अपने धनों तथा प्राणों के साथ जिहाद करने वालों को पद के एतिबार से, जिहाद से बैठे रहने वालों पर प्रधानता प्रदान किया है। जबकि अल्लाह ने सब के साथ भलाई का वादा किया है।तथा अल्लाह ने जिहाद करने वालों को महान प्रतिफल देकर, जिहाद से बैठे रहने वालों पर वरीयता प्रदान किया है।
निःसंदेह फ़रिश्ते जिन लोगों के प्राण इस हाल में निकालते हैं कि वे (कुफ़्र के देश से हिजरत न करके) अपने ऊपर अत्याचार करने वाले होते हैं, तो उनसे पूछते हैं कि तुम किस हाल में थे? वे कहते हैं : हम धरती में कमज़ोर थे। तब फ़रिश्ते कहते हैं : क्या अल्लाह की धरती विशाल न थी कि तुम उसमें हिजरत कर[66] जाते? सो यही लोग हैं जिनका ठिकाना जहन्नम है और वह बहुत बुरा ठिकाना है!
66. जब सत्य के विरोधियों के अत्याचार से विवश होकर नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम मदीना हिजरत (प्रस्थान) कर गए, तो अरब में दो प्रकार के देश हो गए : मदीना दारुल-हिजरत (प्रवास गृह) था, जिसमें मुसलमान हिजरत करके एकत्र हो गए। तथा दारुल ह़र्ब। अर्थात् वह क्षेत्र जो शत्रुओं के नियंत्रण में था। जिसका केंद्र मक्का था। यहाँ जो मुसलमान थे वे अपनी आस्था तथा धार्मिक कर्म से वंचित थे। उन्हे शत्रु का अत्याचार सहना पड़ता था। इसलिए उन्हें यह आदेश दिया गया था कि मदीना हिजरत कर जाएँ। और यदि वे शक्ति रखते हुए हिजरत नहीं करेंगे, तो अपने इस आलस्य के लिए उत्तरदायी होंगे। इसके पश्चात् आगामी आयत में उनकी चर्चा की जा रही है, जो हिजरत करने से विवश थे। मक्का से मदीना हिजरत करने का यह आदेश मक्का की विजय सन् 8 हिजरी के पश्चात् निरस्त कर दिया गया। इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु कहते हैं कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के युग में कुछ मुसलमान काफ़िरों की संख्या बढ़ाने के लिए उनके साथ हो जाते थे। और तीर या तलवार लगने से मारे जाते थे, उन्हीं के बारे में यह आयत उतरी। (सह़ीह़ बुख़ारी : 4596)
तथा जो कोई अल्लाह के मार्ग में हिजरत करेगा, वह धरती में बहुत-से प्रवास स्थान तथा समाई (विस्तार) पाएगा। और जो व्यक्ति अपने घर से अल्लाह और उसके रसूल की ओर हिजरत की खातिर निकले, फिर उसे (रास्ते ही में) मौत आ जाए, तो उसका बदला अल्लाह के पास निश्चित हो गया और अल्लाह अति क्षमाशील, दयावान् है।
और जब तुम धरती में यात्रा करो, तो नमाज़ क़स्र[67] (संक्षिप्त) करने में तुमपर कोई गुनाह नहीं है, यदि तुम्हें डर हो कि काफ़िर तुम्हें कष्ट पहुँचाएँगे। वास्तव में, काफ़िर तुम्हारे खुले दुश्मन हैं।
67. क़स्र का अर्थ चार रक्अत वाली नमाज़ को दो रक्अत पढ़ना है। यह अनुमति प्रत्येक यात्रा के लिए है, शत्रु का भय हो, या न हो।
तथा (ऐ नबी!) जब आप (युद्ध के मैदान में) उनके साथ मौजूद हों और उनके लिए नमाज़[68] क़ायम करें, तो उनका एक गिरोह आपके साथ खड़ा हो जाए और वे अपने हथियार लिए रहें और जब वे सज्दा कर लें, तो तुम्हारे पीछे हो जाएँ तथा दूसरा गिरोह आए, जिसने नमाज़ नहीं पढ़ी है और वे तुम्हारे साथ नमाज़ पढ़ें और अपने हथियार लिए सावधान रहें। काफ़िर चाहते हैं कि तुम अपने हथियारों और अपने सामान से असावधान हो जाओ, तो तुमपर यकायक धावा बोल दें। तथा तुमपर कोई दोष नहीं, यदि वर्षा के कारण तुम्हें कष्ट हो अथवा तुम बीमार हो कि अपने हथियार उतार दो तथा अपने बचाव का ध्यान रखो। निःसंदेह अल्लाह ने काफ़िरों के लिए अपमानकारी अज़ाब तैयार कर रखा है।
68. इसका नाम "सलातुल ख़ौफ़" अर्थात भय के समय की नमाज़ है। जब रणक्षेत्र में प्रत्येक समय भय लगा रहे, तो उस (समय नमाज़ पढ़ने) की विधि यह है कि सेना के दो भाग कर लें। एक भाग को नमाज़ पढ़ाएँ, तथा दूसरा शत्रु के सम्मुख खड़ा रहे, फिर (पहले गिरोह के एक रक्अत पूरी होने के बाद) दूसरा आए और नमाज़ पढ़े। इस प्रकार प्रत्येक गिरोह की एक रक्अत और इमाम की दो रक्अत होंगी। ह़दीसों में इसकी और भी विधियाँ आईं हैं। और यह युद्ध की स्थितियों पर निर्भर है।
फिर जब तुम नमाज़ पूरी कर लो, तो खड़े और बैठे और लेटे (प्रत्येक स्थिति में) अल्लाह को याद करते रहो और जब तुम भयमुक्त हो जाओ, तो (पहले की तरह) नमाज़ क़ायम करो। निःसंदेह नमाज़ ईमान वालों पर निर्धारित समय पर फ़र्ज़ की गई है।
तथा तुम (दुश्मन) क़ौम का पीछा करने में कमज़ोर न पड़ो, यदि तुम्हें पीड़ा होती है, तो निःसंदेह उन्हें भी पीड़ा होती है जिस तरह तुम्हें पीड़ा होती है और तुम अल्लाह से जिस चीज़ की आशा[69] रखते हो, वे उसकी आशा नहीं रखते। तथा अल्लाह सब कुछ जानने वाला, बहुत हिकमत वाला है।
(ऐ नबी!) हमने आपकी ओर सत्य पर आधारित पुस्तक अवतरित की है, ताकि आप लोगों के बीच उसके अनुसार फ़ैसला करें, जो अल्लाह ने आपको दिखाया है और आप ख़यानत करने वालों के तरफ़दार न बनें।[70]
70. यहाँ से, अर्थात आयत 105 से 113 तक, के विषय में भाष्यकारों ने लिखा है कि एक व्यक्ति ने एक अन्सारी की कवच (ज़िरह) चुरा ली। और जब देखा कि उसका भेद खुल जाएगा, तो उसका आरोप एक यहूदी पर लगा दिया। और उसके क़बीले के लोग भी उसके पक्षधर हो गए। और नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास आए, और कहा कि आप इसे निर्दोष घोषित कर दें। और उनकी बातों के कारण समीप था कि आप उसे निर्दोष घोषित करके यहूदी को अपराधी बना देते कि आपको सावधान करने के लिए ये आयतें उतरीं। (इब्ने जरीर) इन आयतों का साधारण भावार्थ यह है कि मुसलमान न्यायधीश को चाहिए कि किसी पक्ष का इस लिए पक्ष न धरे कि वह मुसलमान है। और दूसरा मुसलमान नहीं है, बल्कि उसे हर ह़ाल में निष्पक्ष होकर न्याय करना चाहिए।
वे लोगों से छिपते हैं, परंतु अल्लाह से नहीं छिपते। हालाँकि वह उनके साथ होता है, जब वे रात में उस बात की गुप्त योजना बनाते हैं, जिससे वह प्रसन्न नहीं[72] होता। तथा वे जो कुछ करते हैं, अल्लाह उसे घेरे हुए है।
72. आयत का भावार्थ यह है कि मुसलमानों को अपना सहधर्मी अथवा अपनी जाति या परिवार का होने के कारण किसी अपराधी का पक्षपात नहीं करना चाहिए। क्योंकि संसार न जाने, परंतु अल्लाह तो जानता है कि कौन अपराधी है, कौन नहीं।
और जो व्यक्ति कोई पाप करता है, तो निःसंदेह वह उसका भार अपने ऊपर ही लादता[73] है, तथा अल्लाह सब कुछ जानने वाला, हिकमत वाला है।
73. भावार्थ यह है कि जो अपराध करता है, उसके अपराध का दुष्परिणाम उसी के ऊपर है। अतः तुम यह न सोचो कि अपराधी के अपने सहधर्मी अथवा संबंधी होने के कारण, उसका अपराध सिद्ध हो गया, तो हमपर भी धब्बा लग जाएगा।
और (ऐ नबी!) यदि आपपर अल्लाह का अनुग्रह और उसकी दया न होती, तो उनके एक समूह ने निश्चय आपको बहकाने का इरादा[75] कर लिया था। हालाँकि वे केवल अपने आप को ही पथभ्रष्ट कर रहे हैं और वे आपको कुछ भी हानि नहीं पहुँचा सकते। और अल्लाह ने आपपर पुस्तक तथा हिकमत अवतरित की है और आपको वह कुछ सिखाया है, जो आप नहीं जानते थे। और आपपर अल्लाह का अनुग्रह बहुत बड़ा है।
उनकी अधिकतर कानाफूसियों में कोई भलाई नहीं होती, परन्तु जो दान या नेकी या लोगों के बीच संधि कराने का आदेश दे (तो इसमें भलाई है), और जो कोई ऐसे कर्म अल्लाह की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए करेगा, हम जल्द ही उसे बहुत बड़ा बदला प्रदान करेंगे।
तथा जो व्यक्ति अपने सामने मार्गदर्शन स्पष्ट हो जाने के बाद रसूल का विरोध करे और ईमान वालों[76] के मार्ग के अलावा (किसी दूसरे मार्ग) पर चले, हम उसे उधर ही फेर देंगे[77], जिधर वह (स्वयं) फिर गया है और उसे नरक में झोंक देंगे। और वह बहुत बुरा ठिकाना है।
76. ईमान वालों से अभिप्राय नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के सह़ाबा (साथी) हैं। 77. विद्वानों ने लिखा है कि यह आयत भी उसी मुनाफ़िक़ से संबंधित है। क्योंकि जब नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उसके विरुद्ध दंड का निर्णय कर दिया, तो वह भागकर मक्का के मिश्रणवादियों से मिल गया। (तफ़्सीरे क़ुर्तुबी) फिर भी इस आयत का आदेश सर्वसामान्य है।
निःसंदेह अल्लाह अपने साथ साझी ठहराए जाने को क्षमा[78] नहीं करेगा और इससे कमतर पाप जिसके लिए चाहेगा, क्षमा कर देगा। तथा जो अल्लाह का साझी बनाता है, वह यक़ीनन भटककर बहुत दूर जा पड़ा।
और मैं उन्हें अवश्य पथभ्रष्ट करूँगा, और उन्हें अवश्य आशाएँ दिलाऊँगा और उन्हें अवश्य आदेश दूँगा तो वे पशुओं के कान चीरेंगे तथा निश्चय उन्हें आदेश दूँगा, तो वे अवश्य अल्लाह की रचना में परिवर्तन[79] करेंगे। तथा जो अल्लाह को छोड़कर शैतान को अपना मित्र बना ले, वह निश्चय खुले घाटे में पड़ गया।
79. इसके बहुत से अर्थ हो सकते हैं। जैसे गोदना, गुदवाना, स्त्री का पुरुष का आचरण और स्वभाव बनाना, इसी प्रकार पुरुष का स्त्री का आचरण तथा रूप धारण करना आदि।
तथा जो लोग ईमान लाए और अच्छे काम किए, हम उन्हें ऐसी जन्नतों में दाख़िल करेंगे, जिनके नीचे नहरें बहती हैं। वे उनमें हमेशा रहेंगे। यह अल्लाह का सच्चा वादा है और अल्लाह से अधिक सच्ची बात किसकी हो सकती है?
(मोक्ष) न तुम्हारी कामनाओं पर निर्भर है, न अह्ले किताब की कामनाओं पर। जो भी बुरा काम करेगा, उसका बदला पाएगा तथा अल्लाह के सिवा अपना कोई रक्षक और सहायक नहीं पाएगा।
तथा जो अच्छे कार्य करेगा, चाहे नर हो या नारी, जबकि वह मोमिन[80] हो, तो ऐसे लोग जन्नत में प्रवेश पाएँगे और उनका खजूर की गुठली के ऊपरी भाग के गड्ढे के बराबर भी हक़ नहीं मारा जाएगा।
80. अर्थात सत्कर्म का प्रतिफल सत्य आस्था और ईमान पर आधारित है कि अल्लाह तथा उसके नबियों पर ईमान लाया जाए। तथा ह़दीसों से विदित होता है कि एक बार मुसलमानों और अह्ले किताब के बीच विवाद हो गया। यहूदियों ने कहा कि हमारा धर्म सबसे अच्छा है। मुक्ति केवल हमारे ही धर्म में है। मुसलमानों ने कहा कि हमारा धर्म सबसे अच्छा और अंतिम धर्म है। उसी पर यह आयत उतरी। (इब्ने जरीर)
तथा उस व्यक्ति से अच्छा धर्म किसका हो सकता है, जिसने अपना शीश अल्लाह के सामने झुका दिया और वह अच्छे कार्य करने वाला (भी) हो तथा इबराहीम के तरीक़े का अनुसरण करे, जो बहुदेववाद से कटकर एकेश्वरवाद की ओर एकाग्र थे, और अल्लाह ने इबराहीम को अपना मित्र बनाया था।
(ऐ नबी!) लोग आपसे स्त्रियों के बारे में फ़तवा (शरई हुक्म) पूछते हैं। आप कह दें कि अल्लाह तुम्हें उनके बारे में फतवा देता है, तथा किताब की वे आयतें भी जो अनाथ स्त्रियों के बारे में तुम्हें पढ़कर सुनाई जाती हैं, जिन्हें तुम उनके निर्धारित अधिकार नहीं देते और तुम चाहते हो कि उनसे विवाह कर लो, तथा कमज़ोर बच्चों के बारे में भी यही हुक्म है, और यह कि तुम अनाथों के मामले में न्याय पर क़ायम रहो।[81] तथा तुम जो भी भलाई करते हो, अल्लाह उसे भली-भाँति जानता है।
81. इस्लाम से पहले यदि अनाथ स्त्री सुंदर होती तो उसका संरक्षक, यदि उसका विवाह उससे हो सकता हो, तो उससे विवाह कर लेता। परंतु उसे महर (विवाह उपहार) नहीं देता। और यदि सुंदर न हो, तो दूसरे से उसे विवाह नहीं करने देता था। ताकि उसका धन उसी के पास रह जाए। इसी प्रकार अनाथ बच्चों के साथ भी अत्याचार और अन्याय किया जाता था, जिनसे रोकने के लिए यह आयत उतरी। (इब्ने कसीर)
और यदि किसी स्त्री को अपने पति की ओर से ज़्यादती या बेरुखी का डर हो, तो उन दोनों पर कोई दोष नहीं कि आपस में समझौता कर लें और समझौता कर लेना ही बेहतर[82] है। तथा लोभ एवं कंजूसी तो मानव स्वभाव में शामिल है। परंतु यदि तुम एक-दूसरे के साथ उपकार करो और (अल्लाह से) डरते रहो, तो निःसंदेह अल्लाह तुम्हारे कर्मों से सूचित है।
82. अर्थ यह है कि स्त्री, पुरुष की इच्छा और रूचि पर ध्यान दे, तो यह संधि की रीति अलगाव से अच्छी है।
और तुम पत्नियों के बीच पूर्ण न्याय कदापि नहीं कर[83] सकते, चाहे तुम इसके कितने ही इच्छुक हो। अतः (अवांछित पत्नी से) पूरी तरह विमुख[84] न हो जाओ कि उसे अधर में लटकी हुई छोड़ दो। और यदि तुम आपस में सामंजस्य[85] बना लो और (अल्लाह से) डरते रहो, तो निःसंदेह अल्लाह क्षमा करने वाला, अत्यंत दयावान है।
83. क्योंकि यह स्वभाविक है कि मन का आकर्षण किसी एक की ओर होगा। 84. अर्थात जिसमें उसके पति की रूचि न हो, और न व्यवहारिक रूप से बिना पति के हो। 85. अर्थात सब के साथ व्यवहार तथा सहवास संबंध में बराबरी करो।
और यदि दोनों अलग हो जाएँ, तो अल्लाह अपने व्यापक अनुग्रह से हर-एक को (दूसरे से) बेनियाज़[86] कर देगा और अल्लाह व्यापक अनुग्रह वाला, पूर्ण हिकमत वाला है।
86. अर्थात यदि निभाव न हो सके तो विवाह बंधन में रहना आवश्यक नहीं। दोनों अलग हो जाएँ, अल्लाह दोनों के लिए पति तथा पत्नी की व्यवस्था बना देगा।
तथा जो कुछ आकाशों और धरती में है, सब अल्लाह ही का है। और हमने तुमसे पूर्व किताब दिए गए लोगों को तथा (खुद) तुम्हें आदेश दिया है कि अल्लाह से डरते रहो। और यदि तुम कुफ़्र करोगे, तो (याद रखो कि) जो कुछ आकाशों तथा धरती में है, वह अल्लाह ही का है तथा अल्लाह बेनियाज़[87] और स्तुत्य है।
जो व्यक्ति दुनिया का बदला चाहता है, तो (जान लो कि) अल्लाह के पास दुनिया और आखिरत (दोनों) का बदला है तथा अल्लाह सब कुछ सुनने वाला और सब कुछ देखने वाला है।
ऐ ईमान वालो! मज़बूती के साथ न्याय पर जम जाने वाले और अल्लाह की प्रसन्नता के लिए गवाही देने वाले बन जाओ। चाहे वह (गवाही) स्वयं तुम्हारे अपने या माता-पिता और रिश्तेदारों के विरुद्ध ही क्यों न हो। यदि कोई धनवान अथवा निर्धन हो, तो अल्लाह उन दोनों (के हित) का अधिक हक़दार है। अतः तुम मन की इच्छा का पालन न करो कि न्याय छोड़ दो। यदि तुम घुमा फिरा के गवाही दोगे या गवाही देने से कतराओगे, तो निःसंदेह अल्लाह तुम्हारे कार्यों से सूचित है।
ऐ ईमान वालो! अल्लाह, उसके रसूल और उस पुस्तक पर ईमान लाओ जो अल्लाह ने अपने रसूल (मुहम्मद) पर उतारी और उस किताब पर भी जो उसने इससे पहले उतारी। और जो व्यक्ति अल्लाह, उसके फ़रिश्तों, उसकी पुस्तकों और अंतिम दिवस (परलोक) का इनकार करे, वह निश्चय बहुत दूर की गुमराही में जा पड़ा।
निःसंदेह जो ईमान लाए, फिर काफ़िर हो गए, फिर ईमान लाए, फिर काफ़िर हो गए, फिर कुफ़्र में बढ़ते चले गए,अल्लाह उन्हें कभी क्षमा नहीं करेगा और न उन्हें सीधा मार्ग दिखाएगा।
और अल्लाह ने तुम्हारे लिए अपनी पुस्तक में (यह आदेश) अवतिरत[90] किया है कि जब तुम सुनो कि अल्लाह की आयतों का इनकार किया जा रहा है तथा उनका मज़ाक़ उड़ाया जा रहा है, तो ऐसा करने वालों के साथ न बैठो, यहाँ तक कि वे दूसरी बात में लग जाएँ। अन्यथा तुम भी उन्हीं जैसे हो जाओगे। निश्चय अल्लाह मुनाफ़िक़ों (पाखंडियों) और काफ़िरों को एक साथ जहन्नम में इकट्ठा करने वाला है।
जो तुम्हारी (अच्छी या बुरी स्थिति की) प्रतीक्षा में रहते हैं; यदि अल्लाह की ओर से तुम्हें विजय प्राप्त हो, तो वे कहते हैं : क्या हम तुम्हारे साथ न थे? और यदि काफ़िरों को कोई भाग प्राप्त हो, तो (उनसे) कहते हैं : क्या हम तुम्हारी मदद के लिए खड़े नहीं हुए थे और तुम्हें ईमान वालों से बचाया नहीं था? अतः अल्लाह क़ियामत के दिन तुम्हारे बीच निर्णय करेगा और अल्लाह काफ़िरों के लिए ईमान वालों पर हरगिज़ कोई रास्ता नहीं बनाएगा।[91]
91. अर्थात मुनाफ़िक़, काफ़िरों की कितनी ही सहायता करें, उनकी ईमान वालों पर स्थायी विजय नहीं होगी। यहाँ से मुनाफ़िक़ों के आचरण और स्वभाव की चर्चा की जा रही है।
निःसंदेह मुनाफ़िक़ लोग अल्लाह को धोखा दे रहे हैं, हालाँकि उसी ने उन्हें धोखे में डाल रखा[92] है। और जब वे नमाज़ के लिए खड़े होते हैं, तो आलसी होकर खड़े होते हैं। वे लोगों के सामने दिखावा करते हैं और अल्लाह को बहुत कम ही याद करते हैं।
92. अर्थात उन्हें अवसर दे रहा है, जिसे वे अपनी सफलता समझते हैं। आयत 139 से यहाँ तक मुनाफ़िक़ों के कर्म और आचरण से संबंधित जो बातें बताई गई हैं, वे चार हैे : 1-वे मुसलमानों की सफलता पर विश्वास नहीं रखते। 2- मुसलमानों को सफलता मिले, तो उनके साथ हो जाते हैं और काफ़िरों को मिले, तो उनके साथ। 3- नमाज़ मन से नहीं, बल्कि केवल दिखाने के लिए पढ़ते हैं। 4- वे ईमान और कुफ़्र के बीच असमंजस में रहते हैं।
वे कुफ़्र और ईमान के बीच असमंजस में पड़े हुए हैं, न इनके साथ और न उनके साथ। दरअसल, जिसे अल्लाह गुमराह कर दे, आप उसके लिए हरगिज़ कोई रास्ता नहीं पाएँगे।
परन्तु जिन लोगों ने पश्चाताप कर लिया, और अपना सुधार कर लिया, और अल्लाह (के धर्म) को मज़बूती से थाम लिया और अपने धर्म को अल्लाह के लिए विशिष्ट कर दिया, तो वही लोग ईमान वालों के साथ होंगे और अल्लाह ईमान वालों को बहुत बड़ा बदला प्रदान करेगा।
अल्लाह तुम्हें यातना देकर क्या करेगा, यदि तुम आभारी बनो और ईमान लाओ। और अल्लाह बड़ा क़द्रदान (गुणग्राहक) सब कुछ जानने वाला है।[93]
93. इस आयत में यह संकेत है कि अल्लाह, अच्छा फल या बुरा फल मानव कर्म के परिणाम स्वरूप देता है। जो उसके निर्धारित किए हुए नियम का परिणाम होता है। जिस प्रकार संसार की प्रत्येक चीज़ का एक प्रभाव होता है, ऐसे ही मानव के प्रत्येक कर्म का भी एक प्रभाव होता है।
अल्लाह बुरी बात के साथ आवाज़ ऊँची करना पसंद नहीं करता, परंतु जिसपर अत्याचार किया गया[94] हो (उसके लिए अनुमेय है)। और अल्लाह हमेशा से सब कुछ सुनने वाला, सब कुछ जानने वाला है।
94. आयत में कहा गया है कि किसी व्यक्ति में कोई बुराई हो, तो उसकी चर्चा न करते फिरो। परंतु उत्पीड़ित व्यक्ति अत्याचारी के अत्याचार की चर्चा कर सकता है।
निःसंदेह जो लोग अल्लाह और उसके रसूलों के साथ कुफ़्र करते हैं और चाहते हैं कि अल्लाह तथा उसके रसूलों के बीच अंतर करें तथा कहते हैं कि हम कुछ पर ईमान रखते हैं और कुछ का इनकार करते हैं और चाहते हैं कि इसके बीच कोई राह[95] अपनाएँ।
95. नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की ह़दीस है कि सब नबी भाई हैं, उनके बाप एक और माएँ अलग-लग हैं। सब का धर्म एक है, और हमारे बीच कोई नबी नहीं है। (सह़ीह़ बुख़ारी : 3443)
तथा वे लोग जो अल्लाह और उसके रसूलों पर ईमान लाए और उन्होंने उनमें से किसी के बीच अंतर नहीं किया, यही लोग हैं जिन्हें वह शीघ्र ही उनका बदला प्रदान करेगा तथा अल्लाह हमेशा से अति क्षमाशील, अत्यंत दयावान् है।
किताब वाले (ऐ नबी!) आपसे माँग करते हैं कि आप उनपर आकाश से कोई पुस्तक उतार लाएँ। तो वे तो मूसा से इससे भी बड़ी माँग कर चुके हैं। चुनाँचे उन्होंने कहा : हमें अल्लाह को खुल्लम-खुल्ला[96] दिखा दो। तो उन्हें बिजली ने उनके अत्याचार के कारण पकड़ लिया। फिर उन्होंने अपने पास खुली निशानियाँ आने के बाद बछड़े को पूज्य बना लिया। तो हमने उसे क्षमा कर दिया और हमने मूसा को स्पष्ट प्रमाण प्रदान किया।
और हमने उनसे दृढ़ वचन लेने के साथ तूर (पर्वत) को उनके ऊपर उठा लिया और हमने उनसे कहा : दरवाज़े में सजदा करते हुए प्रवेश करो। तथा हमने उनसे कहा कि शनिवार[97] के बारे में अति न करो और हमने उनसे एक दृढ़ वचन लिया।
फिर उनके अपने वचन को तोड़ देने ही के कारण (हमने उनपर ला'नत की) और उनके अल्लाह की आयतों का इनकार करने और उनके नबियों को बिना किसी अधिकार के क़त्ल करने तथा उनके यह कहने के कारण कि हमारे दिल आवरण में सुरक्षित हैं, बल्कि अल्लाह ने उनपर उनके कुफ़्र की वजह से मुहर लगा दी है। अतः वे बहुत कम ही ईमान लाते हैं।
तथा उनके (गर्व से) यह कहने के कारण कि निःसंदेह हमने ही अल्लाह के रसूल मरयम के पुत्र ईसा मसीह को क़त्ल किया। हालाँकि न उन्होंने उसे क़त्ल किया और न उसे सूली पर चढ़ाया, बल्कि उनके लिए (किसी को मसीह का) सदृश बना दिया गया। निःसंदेह जिन लोगों ने इस मामले में मतभेद किया, निश्चय वे इसके संबंध में बड़े संदेह में हैं। उन्हें इसके संबंध में अनुमान का पालन करने के सिवा कोई ज्ञान नहीं, और उन्होंने उसे निश्चित रूप से क़त्ल नहीं किया।
और किताब वालों में से कोई न होगा, परंतु उसकी मौत से पहले उसपर अवश्य ईमान[98] लाएगा और वह क़ियामत के दिन उनपर गवाह[99] होगा।
98. अर्थात प्रलय के समीप ईसा अलैहिस्सलाम के आकाश से उतरने पर उस समय के सभी अह्ले किताब उनपर ईमान लाएँगे, और वह उस समय मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के अनुयायी होंगे। सलीब तोड़ देंगे, और सुअरों को मार डालेंगे, तथा इस्लाम के नियमानुसार निर्णय और शासन करेंगे। (सह़ीह़ बुख़ारी : 2222, 3449, मुस्लिम : 155, 156) 99. अर्थात ईसा अलैहिस्सलाम प्रलय के दिन ईसाइयों के बारे में गवाह होंगे। (देखिए : सूरतुल-माइदा, आयत : 117)
चुनाँचे यहूदी बन जाने वालों के बड़े अत्याचार ही के कारण हमने उनपर कई पाक चीज़ें हराम कर दीं, जो उनके लिए हलाल की गई थीं तथा उनके अल्लाह के रास्ते से बहुत अधिक रोकने का कारण।
तथा उनके ब्याज लेने के कारण, जबकि निश्चय उन्हें इससे रोका गया था और उनके लोगों का धन अवैध रूप से खाने के कारण। तथा हमने उनमें से काफ़िरों के लिए दर्दनाक यातना तैयार कर रखी है।
परंतु उन (यहूदियों) में से जो लोग ज्ञान में पक्के हैं और जो ईमान वाले हैं, वे उस (क़ुरआन) पर ईमान लाते हैं जो आपपर उतारा गया और जो आपसे पहले उतारा गया, और जो विशेषकर नमाज़ क़ायम करने वाले हैं, और जो ज़कात देने वाले और अल्लाह तथा अंतिम दिन पर ईमान लाने वाले हैं। ये लोग हैं जिन्हें हम बहुत बड़ा प्रतिफल प्रदान करेंगे।
(ऐ नबी!) निःसंदेह हमने आपकी ओर वह़्य[100] भेजी, जैसे हमने नूह़ और उसके बाद (दूसरे) नबियों की ओर वह़्य भेजी। और हमने इबराहीम, इसमाईल, इसहाक़, याक़ूब और उसकी संतान, तथा ईसा, अय्यूब, यूनुस, हारून और सुलैमान की ओर वह़्य भेजी और हमने दाऊद को ज़बूर प्रदान की।
100. वह़्य का अर्थ : संकेत करना, दिल में कोई बात डाल देना, गुप्त रूप से कोई बात कहना तथा संदेश भेजना है। ह़ारिस रज़ियल्लाहु अन्हु ने प्रश्न किया : अल्लाह के रसूल! आप पर वह़्य कैसे आती है? आपने कहा : कभी निरंतर घंटी की ध्वनि जैसे आती है, जो मेरे लिए बहुत भारी होती है। और यह दशा दूर होने पर मुझे सब बात याद रहती है। और कभी फ़रिश्ता मनुष्य के रूप में आकर मुझसे बात करता है, तो मैं उसे याद कर लेता हूँ। (सह़ीह़ बुख़ारी : 2, मुस्लिम : 2333)
और (हमने) कुछ रसूल ऐसे (भेजे), जिनके बारे में हम पहले तुम्हें बता चुके हैं, और कुछ रसूल ऐसे (भेजे), जिनके बारे में हमने तुम्हें कुछ नहीं बताया। और अल्लाह ने मूसा से वास्तव में बात की।
ऐसे रसूल जो शुभ सूचना सुनाने वाले और डराने वाले थे। ताकि लोगों के पास रसूलों के बाद अल्लाह के मुक़ाबले में कोई तर्क न रह[101] जाए। और अल्लाह सदा से सब पर प्रभुत्वशाली, पूर्ण हिकमत वाला है।
101. अर्थात कोई अल्लाह के सामने यह न कह सके कि हमें मार्गदर्शन देने के लिए कोई नहीं आया।
परंतु अल्लाह गवाही देता है उस (क़ुरआन) के संबंध में, जो उसने आपकी ओर उतारा है कि उसने उसे अपने ज्ञान के साथ उतारा है तथा फ़रिश्ते गवाही देते हैं। और अल्लाह गवाही देने वाला काफ़ी है।
ऐ लोगो! निःसंदेह तुम्हारे पास यह रसूल सत्य के साथ[103] तुम्हारे पालनहार की ओर से आए हैं। अतः तुम ईमान ले आओ, तुम्हारे लिए बेहतर होगा। तथा यदि इनकार करो, तो (याद रखो कि) निःसंदेह अल्लाह ही का है जो कुछ आकाशों और धरती में है और अल्लाह सदा से सब कुछ जानने वाला, पूर्ण हिकमत वाला है।
103. अर्थात मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम इस्लाम धर्म लेकर आ गए। यहाँ पर यह बात विचारणीय है कि क़ुरआन ने किसी जाति अथवा देशवासी को संबोधित नहीं किया है। वह कहता है कि आप पूरे मानवजाति के नबी हैं। तथा इस्लाम और क़ुरआन पूरे मानवजाति के लिए सत्धर्म है, जो उस अल्लाह का भेजा हुआ सत्धर्म है, जिसकी आज्ञा के अधीन यह पूरा विश्व है। अतः तुम भी उसकी आज्ञा के अधीन हो जाओ।
ऐ किताब वालो! अपने धर्म में हद से आगे[104] न बढ़ो और अल्लाह के बारे में सत्य के सिवा कुछ न कहो। मरयम का पुत्र ईसा मसीह केवल अल्लाह का रसूल और उसका 'शब्द' है, जिसे (अल्लाह ने) मरयम की ओर भेजा तथा उसकी ओर से एक आत्मा[105] है। अतः अल्लाह और उसके रसूलों पर ईमान लाओ और यह न कहो कि (पूज्य) तीन हैं। बाज़ आ जाओ! तुम्हारे लिए बेहतर होगा। अल्लाह केवल एक ही पूज्य है। वह इससे पवित्र है कि उसकी कोई संतान हो। उसी का है जो कुछ आकाशों में हैं और जो कुछ धरती में है और अल्लाह कार्यसाधक[106] के रूप में काफ़ी है।
104. अर्थात ईसा अलैहिस्सलाम को रसूल से पूज्य न बनाओ, और यह न कहो कि वह अल्लाह का पुत्र है, और अल्लाह तीन हैं- पिता और पुत्र तथा पवित्रात्मा। 105. अर्थात ईसा अल्लाह का एक भक्त है, जिसे उसने अपने शब्द (कुन) अर्थात "हो जा" से उत्पन्न किया है। इस शब्द के साथ उसने फ़रिश्ते जिब्रील को मरयम के पास भेजा, और उसने उसमें अल्लाह की अनुमति से यह शब्द फूँक दिया, और ईसा अलैहिस्सलाम पैदा हुए। (इब्ने कसीर) 106. अर्थात उसे क्या आवश्यकता है कि संसार में किसी को अपना पुत्र बनाकर भेजे।
मसीह़ हरगिज़ इससे तिरस्कार महसूस नहीं करेगा कि वह अल्लाह का बंदा हो और न निकटवर्ती फ़रिश्ते ही, और जो भी उसकी बंदगी से तिरस्कार महसूस करे और अभिमान करे, तो वह (अल्लाह) उन सभी को अपने पास एकत्र करेगा।
फिर जो लोग ईमान लाए और उन्होंने अच्छे कर्म किए, तो वह उन्हें उनका भरपूर बदला देगा और उन्हें अपने अनुग्रह से अधिक[107] भी देगा। रहे वे लोग जिन्होंने (अल्लाह की इबादत को) तिरस्कार समझा और अभिमान किया, तो वह उन्हें दर्दनाक यातना देगा। तथा वे अपने लिए अल्लाह के सिवा न कोई मित्र पाएँगे और न कोई सहायक।
107. यहाँ "अधिक" से अभिप्राय स्वर्ग में अल्लाह का दर्शन है। (सह़ीह मुस्लिम :181, तिर्मिज़ी : 2552)
फिर जो लोग अल्लाह पर ईमान लाए तथा इस (क़ुरआन) को मज़बूती से थाम लिया, तो वह उन्हें अपनी विशेष दया तथा अनुग्रह में दाख़िल करेगा और उन्हें अपनी ओर सीधी राह दिखाएगा।
(ऐ नबी!) वे आपसे फतवा (शरई आदेश) पूछते हैं। आप कह दें : अल्लाह तुम्हें 'कलाला'[110] के विषय में फतवा देता है। यदि कोई व्यक्ति मर जाए, जिसकी कोई संतान न हो, और उसकी एक बहन हो, तो उसके लिए उस (धन) का आधा है जो उसने छोड़ा और वह (स्वयं) उस (बहन) का वारिस होगा, यदि उस (बहन) की कोई संतान न हो। फिर यदि वे दो (बहनें) हों, तो उनके लिए उसमें से दो तिहाई होगा जो उसने छोड़ा। और यदि वे कई भाई-बहन पुरुष और महिलाएँ हों, तो पुरुष के लिए दो महिलाओं के हिस्से के बराबर होगा। अल्लाह तुम्हारे लिए खोलकर बयान करता है कि तुम गुमराह न हो जाओ। तथा अल्लाह हर चीज़ को ख़ूब जानने वाला है।
110. कलाला की मीरास का नियम आयत संख्या 12 में आ चुका है, जो उसके तीन प्रकार में से एक के लिए था। अब यहाँ शेष दो प्रकारों का आदेश बताया जा रहा है। अर्थात यदि कलाला के सगे भाई-बहन हों अथवा अल्लाती (जो एक पिता तथा कई माता से हों) तो उनके लिए यह आदेश है।
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Parameters: translation_key: (the key of the currently selected translation) sura_number: [1-114] (Sura number in the mosshaf which should be between 1 and 114) aya_number: [1-...] (Aya number in the sura)
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