तथा निःसंदेह वह हमारे पास मूल पुस्तक[1] में निश्चय बड़ा उच्च तथा पूर्ण हिकमत वाला है।
1. मूल पुस्तक से अभिप्राय 'लौह़-मह़फ़ूज़' (सुरक्षित पुस्तक) है। जिससे सभी आकाशीय पुस्तकें अलग करके अवतरित की गई हैं। सूरतुल-वाक़िआ में इसी को "किताब-मक्नून" कहा गया है। सूरतुल-बुरूज में इसे "लौह़-मह़फ़ूज़" कहा गया है। सूरतुश्-शुअरा में कहा गया है कि यह अगले लोगों की पुस्तकों में है। सूरतुल-आला में कहा गया है कि यह विषय पहली पुस्तकों में भी अंकित है। सारांश यह है कि क़ुरआन के इनकार करने का कोई कारण नहीं। तथा क़ुरआन का इनकार सभी पहली पुस्तकों का इनकार करने के बराबर है।
और निःसंदेह यदि आप उनसे पूछें कि आकाशों तथा धरती को किसने पैदा किया? तो निश्चय अवश्य कहेंगे कि उन्हें सब पर प्रभुत्वशाली, सब कुछ जानने वाले ने पैदा किया है।
ताकि तुम उनकी पीठों पर जमकर बैठो, फिर अपने पालनहार की नेमत को याद करो जब उनपर जमकर बैठ जाओ और कहो : पवित्र है वह अल्लाह, जिसने इसे हमारे वश में कर दिया। हालाँकि हम इसे वश में करने वाले नहीं थे।
4. आदरणीय अब्दुल्लाह बिन उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि जब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ऊँट पर सवार होते, तो तीन बार 'अल्लाहु अक्बर' कहते, फिर यही आयत "मुन्क़लिबून" तक पढ़ते। और कुछ और प्रार्थना के शब्द कहते थे जो दुआओं की पुस्तकों में मिलेंगे। (सह़ीह़ मुस्लिम, ह़दीस संख्या : 1342)
और उन्होंने[5] उसके बंदों में से कुछ को उसका अंश बना लिया। निःसंदेह मनुष्य खुला कृतघ्न (नाशुक्रा) है।
5. जैसे मक्का के मुश्रिक लोग फ़रिश्तों को अल्लाह की पुत्रियाँ मानते थे। और ईसाइयों ने ईसा (अलैहिस्सलाम) को अल्लाह का पुत्र माना। और किसी ने आत्मा को प्रमात्मा तथा अवतारों को प्रभु बना दिया। और फिर उन्हें पूजने लगे।
हालाँकि जब उनमें से किसी को उस चीज़ की मंगल सूचना दी जाए, जिसकी उसने रहमान (परम दयावान्) के लिए मिसाल बयान की है, तो उसके मुँह पर कलौंस[6] छा जाती है और वह शोक से भर जाता है।
6. इस्लाम से पूर्व यही दशा थी कि यदि किसी के हाँ बच्ची जन्म लेती, तो लज्जा के मारे उसका मुख काला हो जाता। और कुछ अरब के क़बीले उसे जन्म लेते ही जीवित गाड़ दिया करते थे। किंतु इस्लाम ने उसको सम्मान दिया। तथा उसकी रक्षा की। और उसके पालन-पोषण को पुण्य कार्य घोषित किया। ह़दीस में है कि जो पुत्रियों के कारण दुःख झेले और उनके साथ उपकार करे, तो उसके लिए वे नरक से पर्दा बनेंगी। (सह़ीह़ बुख़ारी : 5995, सह़ीह़ मुस्लिम : 2629) आज भी कुछ पापी लोग गर्भ में बच्ची का पता लगते ही गर्भपात करा देते हैं। जिसको इस्लाम बहुत बड़ा अत्याचार समझता है।
और उन्होंने फ़रिश्तों को, जो 'रहमान' के बंदे हैं, स्त्रियाँ क़रार दे लिया। क्या वे उनकी उत्पत्ति के समय उपस्थित थे? उनकी गवाही लिख ली जाएगी और उनसे पूछताछ की जाएगी।
तथा इसी प्रकार, हमने आपसे पूर्व जिस बस्ती में भी कोई सावधान करने वाला भेजा, तो वहाँ के संपन्न लोगों ने यही कहा कि निःसंदेह हमने अपने बाप-दादा को एक रीति पर पाया और निःसंदेह हम उन्हीं के पद्चिह्नों का अनुसरण करने वाले हैं।[8]
8. आयत का भावार्थ यह है कि प्रत्येक युग के काफ़िर अपने पूर्वजों के अनुसरण के कारण अपने शिर्क और अंधविश्वास पर क़ायम रहे।
उसने कहा : और क्या यदि मैं तुम्हारे पास उससे अधिक सीधा मार्ग ले आऊँ, जिसपर तुमने अपने बाप-दादा को पाया है? उन्होंने कहा : निःसंदेह हम उसका इनकार करने वाले हैं, जिसके साथ तुम भेजे गए हो।
तथा उसने इस (एकेश्वरवाद की बात)[9] को अपने पिछलों में बाक़ी रहने वाली बात बना दिया। ताकि वे लौट आएँ।
9. आयत 26 से 28 तक का भावार्थ यह है कि यदि तुम्हें अपने पूर्वजों ही का अनुसरण करना है, तो अपने पूर्वज इबराहीम (अलैहिस्सलाम) का अनुसरण करो। जो शिर्क से विरक्त तथा एकेश्वरवादी थे। और अपनी संतान में एकेश्वरवाद (तौह़ीद) की शिक्षा छोड़ गए ताकि लोग शिर्क से बचते रहें।
तथा उन्होंने कहा कि यह क़ुरआन इन दो बस्तियों में से किसी बड़े आदमी पर क्यों नहीं उतारा गया?[11]
11. मक्का के काफ़िरों ने कहा कि यदि अल्लाह को रसूल ही भेजना था, तो मक्का और ताइफ़ के नगरों में से किसी प्रधान व्यक्ति पर क़ुरआन उतार देता। अब्दुल्लाह का अनाथ-निर्धन पुत्र मुह़म्मद तो कदापि इसके योग्य नहीं है।
कया वे आपके पालनहार की दया को बाँटते[12] हैं? हमने ही दुनिया के जीवन में उनके बीच उनकी रोज़ी को बाँटा है तथा उनमें से कुछ को दूसरों से श्रेणियों की दृष्टि से उच्च रखा है, ताकि उनमें से कुछ दूसरों को (अपने) अधीन बना लें, तथा आपके पालनहार की दया[13] उससे उत्तम है, जिसे वे इकट्ठा करते हैं।
12. आयत का भावार्थ यह है कि अल्लाह ने जैसे सांसारिक धन-धान्य में लोगों की विभिन्न श्रेणियाँ बनाई हैं उसी प्रकार नुबुव्वत और रिसालत, जो उसकी दया हैं, उनसे भी जिसे चाहा सम्मानित किया है। 13. अर्थात परलोक में स्वर्ग सदाचारी बंदों को मिलेगी।
और यदि ऐसा न होता कि सब लोग एक ही समुदाय हो जाएँगे, तो निश्चय हम उन लोगों के लिए जो रहमान के साथ कुफ़्र करते हैं, उनके घरों की छतें चाँदी की बना देते और सीढ़ियाँ भी, जिनपर वे चढ़ते हैं।
और उन्होंने कहा : ऐ जादूगर! हमारे लिए अपने पालनहार से उसके द्वारा दुआ कर, जो उसने तुझसे प्रतिज्ञा कर रखी है। निःसंदेह हम अवश्य ही सीधी राह पर आने वाले हैं।
तथा फ़िरऔन ने अपनी जाति में घोषणा करवाया, उसने कहा : ऐ मेरी जाति के लोगो! क्या मेरे पास मिस्र का राज्य नहीं है? तथा ये नहरें मेरे तहत नहीं चलतीं? तो क्या तुम नहीं देखते?
सो उसपर सोने के कंगन क्यों नहीं डाले गए, या उसके साथ फ़रिश्ते मिलकर क्यों नहीं आए?[16]
16. अर्थात यदि मूसा (अलैहिस्सलाम) अल्लाह का रसूल होता, तो उसके पास राज्य, और हाथों में सोने के कंगन तथा उसकी रक्षा के लिए फ़रिश्तों को उसके साथ रहना चाहिए था। जैसे मेरे पास राज्य, हाथों में सोने के कंगन तथा सुरक्षा के लिये सेना है।
तथा जब मरयम के पुत्र का उदाहरण[17] दिया गया, तो सहसा आपकी जाति उसपर शोर मचाने लगी।
17. आयत संख्या 45 में कहा है कि पहले नबियों की शिक्षा पढ़कर देखो कि क्या किसी ने यह आदेश दिया है कि अल्लाह अत्यंत कृपाशील के सिवा दूसरों की इबादत की जाए? इसपर मुश्रिकों ने कहा कि ईसा (अलैहिस्सलाम) की इबादत क्यों की जाती है? क्या हमारे पूज्य उनसे कम हैं?
वह[18] तो केवल एक बंदा है, जिसपर हमने उपकार किया तथा हमने उसे बनी इसराईल के लिए एक उदाहरण बना दिया।
18. इस आयत में बताया जा रहा है कि ये मुश्रिक ईसा (अलैहिस्सलाम) के उदाहरण पर बड़ा शोर मचा रहे हैं। और उसे कुतर्क स्वरूप प्रस्तुत कर रहे हैं। जबकि वह पूज्य नहीं, अल्लाह के दास हैं। जिनपर अल्लाह ने उपकार किया और इसराईल की संतान के लिए एक उदाहरण बना दिया।
और जब ईसा खुले तर्कों के साथ आया, तो उसने कहा : निःसंदेह मैं तुम्हारे पास हिकमत लेकर आया हूँ और ताकि मैं तुम्हारे लिए कुछ ऐसी बातें स्पष्ट कर दूँ, जिनमें तुम विभेद करते हो। अतः अल्लाह से डरो और मेरा कहना मानो।
फिर कई गिरोहों[20] ने आपस में विभेद किया। तो उन लोगों के लिए जिन्होंने ज़ुल्म किया एक दर्दनाक दिन के अज़ाब से बड़ा विनाश है।
20. इसराईली समुदायों में कुछ ने ईसा (अलैहिस्सलाम) को अल्लाह का पुत्र, किसी ने प्रभु तथा किसी ने उसे तीन का तीसरा (तीन खुदाओं में से एक) कहा। केवल एक ही समुदाय ने उन्हें अल्लाह का बंदा तथा नबी माना।
और बड़ा ही बरकत वाला है वह, जिसके पास आसमानों और ज़मीन की बादशाही है और उसकी भी जो उन दोनों के दरमियान है तथा उसी के पास क़ियामत का ज्ञान है और उसी की ओर तुम लौटाए जाओगे।
तथा वे लोग जिन्हें ये उसके सिवा पुकारते हैं, वे सिफ़ारिश का अधिकार नहीं रखते। परंतु जिसने सत्य[22] की गवाही दी और वे (उसे) जानते हों।
22. सत्य से अभिप्राय धर्म-सूत्र "ला इलाहा इल्लल्लाह" है। अर्थात जो इसे जान-बूझ कर स्वीकार करते हों, तो शफ़ाअत उन्हीं के लिए होगी। उन काफ़िरों के लिए नहीं, जो मूर्तियों को पुकारते हैं। अथवा इससे अभिप्राय यह है कि सिफ़ारिश का अधिकार उनको मिलेगा जिन्होंने सत्य को स्वीकार किया है। जैसे नबियों, फ़रिश्तों तथा सदाचारियों को, न कि उन झूठे पूज्यों को जिन्हें मुश्रिक अपना सिफ़ारिशी समझते हैं।
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