ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! प्रतिज्ञाओं (अनुबंधों)[1] को पूरा करो। तुम्हारे लिए चौपाए जानवर (मवेशी) ह़लाल किए गए हैं, सिवाय उनके जो तुमपर पढ़े जाएँगे, इस हाल में कि शिकार को हलाल जानने वाले न हो, जबकि तुम एह़राम[2] की हालत में हो। बेशक अल्लाह फैसला करता है जो चाहता है।
1. ये अनुबंध धार्मिक आदेशों से संबंधित हों अथवा आपस के हों। 2. अर्थात जब ह़ज्ज अथवा उमरे का एह़राम बाँधे रहो।
ऐ ईमान वालो! अल्लाह की निशानियों[3] का अनादर न करो, न सम्मानित महीने[4] का, न ह़रम की क़ुर्बानी का, न पट्टे वाले जानवरों का, और न उन लोगों का जो अपने पालनहार के अनुग्रह और उसकी प्रसन्नता की खोज में सम्मानित घर (काबा) की ओर जा रहे हों। और जब एह़राम खोल दो, तो शिकार करो। और किसी गिरोह की दुश्मनी, इस कारण कि उन्होंने तुम्हें मस्जिदे-ह़राम से रोका था, तुम्हें इस बात पर न उभारे कि अत्याचार करने लगो। तथा नेकी और परहेज़गारी पर एक-दूसरे का सहयोग करो और पाप तथा अत्याचार पर एक-दूसरे की सहायता न करो। और अल्लाह से डरो। निःसंदेह अल्लाह कड़ी यातना देने वाला है।
3. अल्लाह की उपासना के लिए निर्धारित चिह्नों का। 4. अर्थात ज़ुल-क़ादा, ज़ुल-ह़िज्जा, मुह़र्रम तथा रजब के मासों में युद्ध न करो।
तुमपर ह़राम किया गया है मुर्दार,[5] (बहता हुआ) रक्त, सूअर का माँस और वह जिसपर (ज़बह करते समय) अल्लाह के अलावा का नाम पुकारा जाए, तथा गला घुटने वाला जानवर, और जिसे चोट लगी हो, तथा गिरने वाला और जिसे सींग लगा हो और जिसे दरिंदे ने खाया हो, परंतु जो तुम (इनमें से) ज़बह[6] कर लो। और जो थानों पर ज़बह किया गया हो और यह कि तुम तीरों के साथ भाग्य मालूम करो। यह सब (अल्लाह की) अवज्ञा है। आज वे लोग जिन्होंने कुफ़्र किया, तुम्हारे धर्म से निराश[7] हो गए। तो तुम उनसे न डरो, केवल मुझसे डरो। आज[8] मैंने तुम्हारे लिए तुम्हारा धर्म परिपूर्ण कर दिया, तथा तुमपर अपनी नेमत पूरी कर दी और तुम्हारे लिए इस्लाम को धर्म के तौर पर पसंद कर लिया। फिर जो व्यक्ति भूख की किसी सूरत में मजूबर कर दिया जाए, इस हाल में कि किसी पाप की ओर झुकाव रखने वाला न हो, तो निःसंदेह अल्लाह अति क्षमाशील, अत्यंत दयावान् है।
5. मुर्दार से अभिप्राय वह पशु है, जिसे धर्म के नियमानुसार ज़बह न किया गया हो। 6. अर्थात जीवित मिल जाए और उसे नियमानुसार ज़बह कर दो। 7. अर्थात इससे कि तुम फिर से मूर्तियों के पुजारी हो जाओगे। 8. सूरतुल-बक़रा आयत संख्या : 28 में कहा गया है कि इबराहीम अलैहिस्सलाम ने यह प्रार्थना की थी कि "इन में से एक आज्ञाकारी समुदाय बना दे"। फिर आयत : 150 में अल्लाह ने कहा कि "अल्लाह चाहता है कि तुमपर अपना पुरस्कार पूरा कर दे।" और यहाँ कहा कि आज अपना पुरस्कार पूरा कर दिया। यह आयत ह़ज्जतुल वदाअ में अरफ़ा के दिन अरफ़ात में उतरी। (सह़ीह बुखारी : 4606) जो नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का अंतिम ह़ज्ज था, जिसके लग-भग तीन महीने बाद आप संसार से चले गए।
वे आपसे पूछते हैं कि उनके लिए क्या हलाल किया गया है? आप कह दें कि तुम्हारे लिए अच्छी पवित्र चीजें हलाल की गई हैं। और शिकारी जानवरों में से जो तुमने सधाए हैं, (जिन्हें तुम) शिकारी बनाने वाले हो, उन्हें उसमें से सिखाते हो जो अल्लाह ने तुम्हें सिखाया है। तो उसमें से खाओ जो (शिकार) वे तुम्हारे लिए रोक रखें, और उसपर अल्लाह का नाम[9] लो। तथा अल्लाह से डरो। निःसंदेह अल्लाह शीघ्र हिसाब लेने वाला है।
9. अर्थात सधाए हुए कुत्ते और बाज़-शिक़रे आदि का शिकार। उनके शिकार के उचित होने के लिए निम्नलिखित दो बातें आवश्यक हैं : 1- उसे बिस्मिल्लाह कह कर छोड़ा गया हो। इसी प्रकार शिकार जीवित हो तो बिस्मिल्लाह कहकर ज़बह किया जाए। 2- उसने शिकार में से कुछ खाया न हो। (बुख़ारी : 5478, मुस्लिम : 1930)
आज तुम्हारे लिए अच्छी पवित्र चीज़ें हलाल कर दी गईं और उन लोगों का खाना तुम्हारे लिए हलाल है जिन्हें किताब दी गई, और तुम्हारा खाना उनके लिए हलाल है, और ईमान वाली औरतों में से पाक-दामन औरतें तथा उन लोगों की पाक-दामन औरतें जिन्हें तुमसे पहले किताब दी गई, जब तुम उन्हें उनके महर दे दो, इस हाल में कि तुम विवाह में लाने वाले हो, व्यभिचार करने वाले नहीं और न चोरी-छिपे याराना करने वाले। और जो ईमान से इनकार करे, तो निश्चय उसका कर्म व्यर्थ हो गया तथा वह आख़िरत में घाटा उठाने वालों में से है।
ऐ ईमान वालो! जब तुम नमाज़ के लिए उठो, तो अपने चेहरों को और अपने हाथों को कुहनियों समेत धो लो और अपने सिरों का मसह़[10] करो तथा अपने पाँवों को टखनों समेत (धो लो)। और यदि तुम जनाबत[11] की हालत में हो, तो स्नान कर लो। तथा यदि तुम बीमार हो, अथवा यात्रा में हो, अथवा तुममें से कोई शौचकर्म से आया हो, अथवा तुमने स्त्रियों से सहवास किया हो, फिर कोई पानी न पाओ, तो पाक मिट्टी का क़सद करो और उससे अपने चेहरों तथा हाथों पर मसह [12]कर लो। अल्लाह नहीं चाहता कि तुमपर कोई तंगी करे। लेकिन वह चाहता है कि तुम्हें पाक करे और ताकि अपनी नेमत तुमपर पूरी करे, ताकि तुम शुक्र करो।
10. मसह़ का अर्थ है, दोनों हाथ भिगोकर सिर पर फेरना। 11. जनाबत से अभिप्राय वह मलिनता है, जो स्वप्नदोष तथा स्त्री संभोग से होती है। यही आदेश मासिक धर्म तथा प्रसव का भी है।12. ह़दीस में है कि एक यात्रा में आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा का हार खो गया, जिसके लिए बैदा के स्थान पर रुकना पड़ा। भोर की नमाज़ के वुज़ु के लिए पानी नहीं मिल सका और यह आयत उतरी। (देखिए : सह़ीह़ बुख़ारी : 4607) मसह़ का अर्थ हाथ फेरना है। तयम्मुम के लि देखिए : सूरतुन-निसा, आयत : 43)
तथा अपने ऊपर अल्लाह की नेमत याद करो और उसका वह वचन जो उसने तुमसे दृढ़ रूप से लिया है, जब तुमने कहा था : "हमने सुना और हमने मान लिया" तथा अल्लाह से डरो। निःसंदेह अल्लाह सीनों की बात को भली-भाँति जानने वाला है।
ऐ ईमान वालो! अल्लाह के लिए मज़बूती से क़ायम रहने वाले, न्याय के साथ गवाही देने वाले बन जाओ। तथा किसी समूह की शत्रुता तुम्हें इस बात पर हरगिज़ न उभारे कि तुम न्याय न करो। न्याय करो, यह तक़्वा (अल्लाह से डरने) के अधिक निकट[13] है, और अल्लाह से डरो। निःसंदेह अल्लाह उससे भली-भाँति अवगत है जो तुम करते हो।
13. ह़दीस में है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कहा : जो न्याय करते हैं, वे अल्लाह के पास नूर (प्रकाश) के मंच पर उसके दाईं ओर रहेंगे, - और उसके दोनों हाथ दाएँ हैं - जो अपने आदेश तथा अपने परिजनों और जो उनके अधिकार में हो, में न्याय करते हैं। (सह़ीह़ मुस्लिम : 1827)
ऐ ईमान वालो! अपने ऊपर अल्लाह की नेमत को याद करो, जब कुछ लोगों ने इरादा किया कि तुम्हारी ओर अपने हाथ[14] बढ़ाएँ, तो उसने उनके हाथों को तुमसे रोक दिया। तथा अल्लाह से डरो और ईमान वालों को अल्लाह ही पर भरोसा करना चाहिए।
14. अर्थात तुमपर आक्रमण करने का निश्चय किया, तो अल्लाह ने उनके आक्रमण से तुम्हारी रक्षा की। इस आयत से संबंधित बुख़ारी में सह़ीह़ ह़दीस आती है कि एक युद्ध में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम एकांत में एक पेड़ के नीचे विश्राम कर रहे थे कि एक व्यक्ति आया और आपकी तलवार खींच कर कहा : तुम को अब मुझसे कौन बचाएगा? आपने कहा : अल्लाह! यह सुनते ही तलवार उसके हाथ से गिर गई और आपने उसे क्षमा कर दिया। (सह़ीह़ बुख़ारी : 4139)
तथा निःसंदेह अल्लाह ने बनी इसराईल से दृढ़ वचन लिया और हमने उनमें से बारह प्रमुख नियुक्त किए। तथा अल्लाह ने फरमाया : निःसंदेह मैं तुम्हारे साथ हूँ, यदि तुमने नमाज़ क़ायम की और ज़कात अदा की और मेरे रसूलों पर ईमान लाए और उनका समर्थन किया तथा अल्लाह को अच्छा क़र्ज़[15] दिया। तो निश्चय मैं तुमसे तुम्हारे पाप अवश्य क्षमा कर दूँगा और निश्चय तुम्हें ऐसे बाग़ों में अवश्य दाख़िल करूँगा, जिनके नीचे से नहरें बहती हैं। फिर जिसने इसके बाद तुममें से कुफ़्र किया, तो निश्चय वह सीधे रास्ते से भटक गया।
15. अल्लाह को क़र्ज़ देने का अर्थ उसके लिए दान करना है। इस आयत में ईमान वालों को सावधान किया गया है कि तुम अह्ले किताब : यहूद और नसारा जैसे न हो जाना जो अल्लाह के वचन को भंग करके उसकी धिक्कार के अधिकारी बन गए। (इब्ने कसीर)
तो उनके अपने वचन को भंग करने ही के कारण, हमने उन्हें धिक्कार दिया और उनके दिलों को कठोर कर दिया कि वे शब्दों को उनके स्थानों से फेर देते[16] हैं। तथा वे उसमें से एक हिस्सा भूल गए जिसकी उन्हें नसीहत की गई थी। और आपको हमेशा उनके किसी न किसी विश्वासघात का पता चलता रहेगा, सिवाय उनके थोड़े-से लोगों के। अतः आप उन्हें क्षमा कर दें और उन्हें जाने दें। निःसंदेह अल्लाह उपकार करने वालों से प्रेम करता है।
16. सह़ीह़ ह़दीस में आया है कि कुछ यहूदी, रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास एक नर और नारी को लाए जिन्होंने व्यभिचार किया था। आपने कहा : तुम तौरात में क्या पाते हो? उन्होंने कहा : उनका अपमान करें और कोड़े मारें। अब्दुल्लाह बिन सलाम ने कहा : तुम झूठे हो, बल्कि उसमें (रज्म) करने का आदेश है। तौरात लाओ। वे तौरात लाए, तो एक ने रज्म की आयत पर हाथ रख दिया और आगे-पीछे पढ़ दिया। अब्दुल्लाह बिन सलाम ने कहा : हाथ उठाओ। उसने हाथ उठाया तो उसमें रज्म की आयत थी। (सह़ीह़ बुख़ारी : 3559, सह़ीह़ मुस्लिम : 1699)
तथा जिन लोगों ने कहा कि हम ईसाई हैं, हमने उनसे (भी) दृढ़ वचन लिया, फिर वे उसका एक हिस्सा भूल गए जिसका उन्हें उपदेश दिया गया था। अतः हमने उनके बीच क़ियामत के दिन तक के लिए दुश्मनी और द्वेष भड़का दिया। और शीघ्र ही अल्लाह उन्हें उसकी ख़बर[17] देगा, जो वे किया करते थे।
17. आयत का अर्थ यह है कि जब ईसाइयों ने वचन भंग कर दिया, तो उनमें कई परस्पर विरोधी संप्रदाय हो गए, जैसे याक़ूबिय्यः, नसतूरिय्यः और आरयूसिय्यः। ये सभी एक-दूसरे के शत्रु हो गए। तथा इस समय आर्थिक और राजनीतिक संप्रदायों में विभाजित होकर आपस में रक्तपात कर रहे हैं। इसमें मुसलमानों को भी सावधान किया गया है कि क़ुरआन के अर्थों में परिवर्तन करके ईसाइयों के समान संप्रदायों में विभाजित न होना।
ऐ किताब वालो! तुम्हारे पास हमारे रसूल[18] आ गए हैं, जो तुम्हारे लिए उनमें से बहुत-सी बातें खोलकर बयान करते हैं, जिन्हें तुम किताब में से छिपाया करते थे और बहुत-सी बातों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं। निःसंदेह तुम्हारे पास अल्लाह की ओर से एक प्रकाश तथा स्पष्ट पुस्तक (क़ुरआन) आई है।
18. अर्थात मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम। तथा प्रकाश से अभिप्राय क़ुरआन पाक है।
जिसके द्वारा अल्लाह उन लोगों को शांति के मार्ग दिखाता है, जो उसकी प्रसन्नता के पीछे चलें। और उन्हें अपनी अनुमति से अँधेरों से प्रकाश की ओर निकालता है और उन्हें सीधे रास्ते का मार्गदर्शन प्रदान करता है।
निश्चय वे लोग काफ़िर[19] हो गए, जिन्होंने कहा कि निःसंदेह अल्लाह मरयम का पुत्र मसीह ही तो है। (ऐ नबी!) कह दें : यदि अल्लाह मसीह बिन मरयम और उसकी माता तथा धरती में मौजूद सभी लोगों को विनष्ट करना चाहे, तो कौन अल्लाह को रोकने का अधिकार रखता है? तथा अल्लाह ही के लिए आकाशों और धरती का राज्य है और उसकी भी जो उन दोनों के बीच है। वह पैदा करता है जो चाहता है तथा अल्लाह हर चीज़ का पूर्ण सामर्थ्य रखता है।
19. इस आयत में ईसा अलैहिस्सलाम के अल्लाह होने की मिथ्या आस्था का खंडन किया जा रहा है।
तथा यहूदियों और ईसाइयों ने कहा कि हम अल्लाह के पुत्र और उसके प्यारे हैं। आप कह दें : फिर वह तुम्हें तुम्हारे पापों के कारण सज़ा क्यों देता है? बल्कि तुम (भी) उसके पैदा किए हुए प्राणियों में से एक मनुष्य हो। वह जिसे चाहता है, क्षमा करता है और जिसे चाहता है, सज़ा देता है। तथा अल्लाह ही के लिए आकाशों और धरती का राज्य[20] है और उसका भी जो उन दोनों के बीच है। और उसी की ओर लौटकर जाना है।
20. इस आयत में ईसाइयों तथा यहूदियों के इस भ्रम का खंडन किया जा रहा है कि वह अल्लाह के प्रियवर हैं, इस लिए जो भी करें, उनके लिए मुक्ति ही मुक्ति है।
ऐ किताब वालो! निःसंदेह तुम्हारे पास हमारा रसूल[21] आया है, जो तुम्हारे लिए खोलकर बयान करता है, रसूलों के एक अंतराल के बाद, ताकि तुम यह न कहो कि हमारे पास न कोई शुभ सूचना देने वाला आया और न डराने वाला। तो निश्चय तुम्हारे पास एक शुभ सूचना देने वाला और डराने वाला आ चुका है। तथा अल्लाह हर चीज़ पर शक्ति रखने वाला है।
21. अंतिम नबी मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम, ईसा अलैहिस्सलाम के छः सौ वर्ष पश्चात् 610 ईस्वी में नबी हुए। आपके और ईसा अलैहिस्सलाम के बीच कोई नबी नहीं आया।
तथा (याद करो) जब मूसा ने अपनी जाति से कहा : ऐ मेरी जाति के लोगो! अपने ऊपर अल्लाह की नेमत को याद करो, जब उसने तुममें नबी बनाए और तुम्हें बादशाह बना दिया तथा तुम्हें वह कुछ दिया, जो समस्त संसार में किसी को नहीं दिया।
ऐ मेरी जाति के लोगो! उस पवित्र धरती (बैतुल मक़दिस) में प्रवेश कर जाओ, जो अल्लाह ने तुम्हारे लिए लिख दी है और अपनी पीठों पर न फिर जाओ, अन्यथा घाटा उठाने वाले होकर लौटोगो।
उन्होंने कहा : ऐ मूसा! उसमें बड़े बलवान लोग रहते हैं और निःसंदेह हम उसमें हरगिज़ प्रवेश न करेंगे, यहाँ तक कि वे उससे निकल जाएँ। यदि वे उससे निकल जाएँ, तो हम अवश्य प्रवेश करने वाले हैं।
दो व्यक्तियों ने कहा, जो उन लोगों में से थे जो (अल्लाह से) डरते थे, जिनपर अल्लाह ने अनुग्रह किया था : तुम उनपर दरवाज़े में प्रवेश कर जाओ। जब तुम वहाँ प्रवेश कर गए, तो निश्चय तुम विजेता हो। तथा अल्लाह ही पर भरोसा करो, यदि तुम ईमान वाले हो।
उन्होंने कहा : ऐ मूसा! निःसंदेह हम हरगिज़ उसमें कभी प्रवेश नहीं करेंगे, जब तक वे उसमें मौजूद हैं। अतः तुम और तुम्हारा पालनहार जाओ। फिर तुम दोनों लड़ो, निःसंदेह हम यहीं बैठने वाले हैं।
(अल्लाह ने) कहा : निःसंदेह वह (धरती) उनपर चालीस वर्षों के लिए हराम (वर्जित) कर दी गई। (इस दौरान) वे धरती में भटकते रहेंगे। अतः तुम इन अवज्ञाकारी लोगों पर शोक न करो।[22]
22. इन आयतों का भावार्थ यह है कि जब मूसा अलैहिस्सलाम बनी इसराईल को लेकर मिस्र से निकले, तो अल्लाह ने उन्हें बैतुल मक़्दिस में प्रवेश कर जाने का आदेश दिया, जिस पर अमालिक़ा जाति का क़ब्ज़ा था और वही उसके शासक थे। परंतु बनी इसराईल ने, जो कायर हो गए थे, अमालिक़ा से युद्ध करने का साहस नहीं किया। और इस आदेश का विरोध किया, जिसके परिणाम स्वरूप उसी क्षेत्र में 40 वर्ष तक फिरते रहे। और जब 40 वर्ष बीत गए, और एक नया वंश जो साहसी था पैदा हो गया, तो उसने उस धरती पर अधिकार कर लिया। (इब्ने कसीर)
तथा उन्हें आदम के दो बेटों[23] का समाचार सच्चाई के साथ सुना दो, जब उन दोनों ने कुछ क़ुर्बानी प्रस्तुत की, तो उनमें से एक की स्वीकार कर ली गई और दूसरे की स्वीकार न की गई। उस (दूसरे) ने कहा : मैं तुझे अवश्य ही क़त्ल कर दूँगा। उसने उत्तर दिया : निःसंदेह अल्लाह डरने वालों ही से स्वीकार करता है।
23. भाष्यकारों ने इन दोनों के नाम क़ाबील और हाबील बताए हैं।
यदि तूने मुझे मार डालने के लिए मेरी ओर अपना हाथ बढ़ाया[24], तो मैं हरगिज़ अपना हाथ तेरी ओर इसलिए बढ़ाने वाला नहीं कि तुझे क़त्ल करूँ। निःसंदेह मैं अल्लाह से डरता हूँ, जो सारे संसार का पालनहार है।
24. नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कहा : जो भी प्राणी अत्याचार से मारा जाए, तो आदम के प्रथम पुत्र पर उनके ख़ून का भाग होता है, क्योंकि उसी ने सर्वप्रथम हत्या की रीति बनाई है। (सह़ीह़ बुख़ारी : 6867, सह़ीह़ मुस्लिम : 1677)
फिर अल्लाह ने एक कौआ भेजा, जो भूमि कुरेदता था, ताकि उसे दिखाए कि वह अपने भाई के शव को कैसे छिपाए। कहने लगा : हाय मेरा विनाश! क्या मैं इस कौए जैसा भी न हो सका कि अपने भाई का शव छिपा सकूँ। फिर वह लज्जित होने वालों में से हो गया।
इसी कारण, हमने बनी इसराईल पर लिख दिया[25] कि निःसंदेह जिसने किसी प्राणी की किसी प्राणी के खून (के बदले) अथवा धरती में विद्रोह के बिना हत्या कर दी, तो मानो उसने सारे इनसानों की हत्या[26] कर दी, और जिसने उसे जीवन प्रदान किया, तो मानो उसने सारे इनसानों को जीवन प्रदान किया। तथा निःसंदेह उनके पास हमारे रसूल स्पष्ट प्रमाण लेकर आए। फिर निःसंदेह उनमें से बहुत से लोग उसके बाद भी धरती में निश्चय सीमा से आगे बढ़ने वाले हैं।
25. अर्थात नियम बना दिया। इस्लाम में भी यही नियम और आदेश है। 26. क्योंकि सभी प्राण, प्राण होने में बराबर हैं।
जो लोग अल्लाह और उसके रसूल से जंग करते हैं तथा धरती में उपद्रव करने का प्रयास करते हैं, उनका दंड यही है कि उन्हें बुरी तरह क़त्ल कर दिया जाए, या उन्हें बुरी तरह सूली दी जाए, या उनके हाथ-पाँव विपरीत दिशाओं से बुरी तरह काट दिए जाएँ, या उन्हें (उस) देश से निकाल दिया जाए। यह उनके लिए दुनिया में अपमान है तथा आख़िरत में उनके लिए बहुत बड़ी यातना है।
ऐ ईमान वालो! अल्लाह से डरो और उसकी ओर निकटता[27] तलाश करो तथा उसके मार्ग में जिहाद करो, ताकि तुम सफल हो जाओ।
27. "वसीला" का अर्थ है : अल्लाह की आज्ञा का पालन करने और उसकी अवज्ञा से बचने तथा ऐसे कर्मों के करने का, जिनसे वह प्रसन्न हो। वसीला ह़दीस में स्वर्ग के उस सर्वोच्च स्थान को भी कहा गया है, जो स्वर्ग में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को मिलेगा, जिसका नाम "मक़ामे मह़मूद" है। इसीलिए आपने कहा : जो अज़ान के पश्चात् मेरे लिए वसीला की दुआ करेगा, वह मेरी सिफारिश के योग्य होगा। (बुख़ारी : 4719) पीरों और फ़क़ीरों आदि की समाधियों को वसीला समझना निर्मूल और शिर्क है।
निःसंदेह जिन लोगों ने कुफ़्र किया, यदि उनके पास वह सब कुछ हो जो धरती में है और उतना ही उसके साथ और भी हो, ताकि वे यह सब कुछ क़ियामत के दिन की यातना से छुड़ौती के रूप मे दे दें, तो उनकी ओर से स्वीकार नहीं किया जाएगा और उनके लिए दर्दनाक यातना है।
और जो चोरी करने वाला (पुरुष) और जो चोरी करने वाली (स्त्री) है, सो दोनों के हाथ काट दो, उसके बदले में जो उन दोनों ने कमाया, अल्लाह की ओर से इबरत (भय)[28] दिलाने के लिए। और अल्लाह सब पर प्रभुत्वशाली, पूर्ण हिकमत वाला है।
28. यहाँ पर चोरी के विषय में इस्लाम का धर्म-विधान वर्णित किया जा रहा है कि यदि चौथाई दीनार अथवा उसके मूल्य के समान की चोरी की जाए, तो चोर का सीधा हाथ कलाई से काट दो। इसके लिए स्थान तथा समय के और भी प्रतिबंध हैं। इबरत वाला दंड होने का अर्थ यह है कि दूसरे इससे शिक्षा ग्रहण करें, ताकि पूरा देश और समाज चोरी के अपराध से स्वच्छ और पवित्र हो जाए। तथा यह ऐतिहासिक सत्य है कि इस घोर दंड के कारण, इस्लाम के चौदह सौ वर्षों में जिन्हें यह दंड दिया गया है, वह बहुत कम हैं। क्योंकि यह सज़ा ही ऐसी है कि जहाँ भी इसको लागू किया जाएगा, वहाँ चोर और डाकू बहुत कुछ सोच समझ कर ही आगे क़दम बढ़ाएँगे। जिसके फलस्वरूप पूरा समाज अम्न और चैन का गहवारा बन जाएगा। इसके विपरीत संसार के आधुनिक विधानों ने अपराधियों को सुधारने तथा उन्हें सभ्य बनाने का जो नियम बनाया है, उसने अपराधियों में अपराध का साहस बढ़ा दिया है। अतः यह मानना पड़ेगा कि इस्लाम का ये दंड चोरी जैसे अपराध को रोकने में अब तक सबसे सफल सिद्ध हुआ है। और यह दंड मानवता के मान और उसके अधिकार के विपरीत नहीं है। क्योंकि जिस व्यक्ति ने अपना माल, अपने खून-पसीना, परिश्रम तथा अपने हाथों की शक्ति से कमाया है, तो यदि कोई चोर आकर उसको उचकना चाहे तो उसकी सज़ा यही होनी चाहिए कि उसका हाथ ही काट दिया जाए, जिससे वह अन्य का माल हड़प करना चाह रहा है।
फिर जो व्यक्ति अपने अत्याचार (चोरी) के बाद तौबा कर ले और सुधार करे, तो निश्चय अल्लाह उसकी तौबा स्वीकार करेगा।[29] निःसंदेह अल्लाह अति क्षमाशील, अत्यंत दयावान् है।
29. अर्थात उसे परलोक में दंड नहीं देगा, परंतु न्यायालय उसे चोरी सिद्ध होने पर चोरी का दंड देगा। (तफसीर क़ुर्तुबी)
क्या तुमने नहीं जाना कि निःसंदेह अल्लाह ही है जिसके पास आकाशों तथा धरती का राज्य है? वह जिसे चाहता है, दंड देता है और जिसे चाहता है, क्षमा कर देता है। तथा अल्लाह हर चीज़ पर सर्वशक्तिमान है।
ऐ रसूल! वे लोग आपको शोकाकुल न करें, जो कुफ़्र में दौड़कर जाते हैं, उन लोगों में से जिन्होंने अपने मुँह से कहा कि हम ईमान लाए, हालाँकि उनके दिल ईमान नहीं लाए और उन लोगों में से जो यहूदी बने। बहुत सुनने वाले हैं झूठ को, बहुत सुनने वाले हैं दूसरे लोगों के लिए जो आपके पास नहीं आए, वे शब्दों को उनके स्थानों के बाद फेर देते हैं। वे कहते हैं : यदि तुम्हें यह दिया जाए तो ले लो, और यदि तुम्हें यह न दिया जाए, तो बचकर रहो। और जिसे अल्लाह अपनी परीक्षा में डालना चाहे, तो उसे (ऐ रसूल!) आप अल्लाह से बचाने के लिए कुछ नहीं कर सकते। ये वे लोग हैं कि अल्लाह ने नहीं चाहा कि उनके दिलों को पवित्र करे। उनके लिए दुनिया में अपमान है और उनके लिए आख़िरत में बहुत बड़ी यातना[30] है।
30. मदीना के यहूदी विद्वान, मुनाफ़िक़ों को नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास भेजते कि आपकी बातें सुनें, और उन्हें सूचित करें। तथा अपने विवाद आपके पास ले जाएँ, और आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम कोई निर्णय करें तो हमारे आदेशानुसार हो तो स्वीकार करें, अन्यथा स्वीकार न करें। जबकि तौरात की आयतों में इनके आदेश थे, फिर भी वे उनमें परिवर्तन करके, उनका अर्थ कुछ का कुछ बना देते थे। ( देखिए व्याख्या आयत : 13)
बहुत सुनने वाले हैं झूठ को, बहुत खाने वाले हैं हराम को। फिर यदि वे आपके पास आएँ, तो आप उनके बीच निर्णय करें या उनसे मुँह फेर लें, और यदि आप उनसे मुँह फेर लें, तो वे आपको हरगिज़ कोई हानि नहीं पहुँचा सकेंगे और यदि आप निर्णय करें, तो उनके बीच न्याय के साथ निर्णय करें। निःसंदेह अल्लाह न्याय करने वालों से प्रेम करता है।
और वे आपको कैसे न्यायकर्ता बनाते हैं, जबकि उनके पास तौरात है, जिसमें अल्लाह का हुक्म (मौजूद) है! फिर वे उसके पश्चात मुँह फेर लेते हैं। और ये लोग कदापि ईमान वाले नहीं।[31]
31. क्योंकि वे न तो आपको नबी मानते, और न आपका निर्णय मानते, तथा न तौरात का आदेश मानते हैं।
निःसंदेह हमने तौरात उतारी, जिसमें मार्गदर्शन और प्रकाश था। उसके अनुसार वे नबी जो आज्ञाकारी थे उन लोगों के लिए फ़ैसला करते थे, जो यहूदी बने, तथा अल्लाह वाले और विद्वान लोग भी (उसी के अनुसार फ़ैसला करते थे)। क्योंकि वे अल्लाह की पुस्तक के रक्षक बनाए गए थे और वे उसके (सत्य होने के) गवाह थे। अतः तुम लोगों से न डरो, केवल मुझसे डरो और मेरी आयतों के बदले तनिक मूल्य न खरीदो। और जो उसके अनुसार फ़ैसला न करे जो अल्लाह ने उतारा है, तो वही लोग काफ़िर हैं।
और हमने उस (तौरात) में उन (यहूदियों) पर लिख दिया कि प्राण के बदले प्राण है और आँख के बदले आँख, नाक के बदले नाक, कान के बदले कान, दाँत के बदले दाँत[32] तथा सभी घावों में बराबर बदला है। फिर जो इस (बदला) को दान (माफ़) कर दे, तो वह उसके (पापों के) लिए प्रायश्चित है। तथा जो उसके अनुसार फ़ैसला न करे जो अल्लाह ने उतारा है, तो वही लोग अत्याचारी हैं।
32. इस्लाम में भी यही नियम है और नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने दाँत तोड़ने पर यही निर्णय दिया था। (सह़ीह़ बुखारी : 4611)
और हमने उनके पीछे उन्हीं के पद-चिन्हों पर मरयम के बेटे ईसा को भेजा, जो उससे पहले (उतरने वाली) तौरात की पुष्टि करने वाला था तथा हमने उसे इंजील प्रदान की, जिसमें मार्गदर्शन और प्रकाश थी और वह उससे पूर्व (उतरने वाली किताब) तौरात की पुष्टि करने वाली थी तथा वह (अल्लाह से) डरने वालों के लिए सर्वथा मार्गदर्शन और उपदेश थी।
और इंजील वालों को चाहिए कि उसी के अनुसार फ़ैसला करें, जो अल्लाह ने उसमें उतारा है। और जो उसके अनुसार फ़ैसला न करे, जो अल्लाह ने उतारा है, तो वही लोग अवज्ञाकारी हैं।
और (ऐ नबी!) हमने आपकी ओर यह पुस्तक (क़ुरआन) सत्य के साथ उतारी, जो अपने पूर्व की पुस्तकों की पुष्टि करने वाली तथा उनकी संरक्षक[33] है। अतः आप उनके बीच उसके अनुसार फ़ैसला करें, जो अल्लाह ने उतारा है, तथा आपके पास जो सत्य आया है, उससे मुँह मोड़कर उनकी इच्छाओं का पालन न करें। हमने तुममें से हर (समुदाय) के लिए एक शरीयत तथा एक मार्ग निर्धारित किया[34] है। और यदि अल्लाह चाहता, तो तुम्हें एक समुदाय बना देता, लेकिन ताकि वह तुम्हारी उसमें परीक्षा ले, जो कुछ उसने तुम्हें दिया है। अतः भलाइयों में एक-दूसरे से आगे बढ़ो[35], अल्लाह ही की ओर तुम सबको लौटकर जाना है। फिर वह तुम्हें बताएगा, जिन बातों में तुम मतभेद किया करते थे।
33. संरक्षक होने का अर्थ यह है कि क़ुरआन अपने पूर्व की धर्म पुस्तकों का केवल पुष्टिकर ही नहीं, कसौटी (परख) भी है। अतः पूर्व पुस्तकों में जो भी बात क़ुरआन के विरुद्ध होगी, वह सत्य नहीं परिवर्तित होगी, सत्य वही होगी जो अल्लाह की अंतिम किताब क़ुरआन पाक के अनुकूल है। 34. यहाँ यह प्रश्न उठता है कि जब तौरात तथा इंजील और क़ुरआन सब एक ही सत्य लाए हैं, तो फिर इनके धर्म विधानों तथा कार्य प्रणाली में अंतर क्यों है? क़ुरआन उसका उत्तर देता है कि एक चीज़ मूल धर्म है, अर्थात एकेश्वरवाद तथा सत्कर्म का नियम, और दूसरी चीज़ धर्म-विधान तथा कार्य-प्रणाली है, जिसके अनुसार जीवन व्यतीत किया जाए। तो मूल धर्म तो एक ही है, परंतु समय और स्थितियों के अनुसार कार्य प्रणाली में अंतर होता रहा है, क्योंकि प्रत्येक युग की स्थितियाँ एक समान नहीं थीं, और यह मूल धर्म का अंतर नहीं, कार्य प्रणाली का अंतर हुआ। अतः अब समय तथा परिस्थतियाँ बदल जाने के पशचात् क़ुरआन जो धर्म विधान तथा कार्य प्रणाली परस्तुत कर रहा है, वही सत्धर्म है। 35. अर्थात क़ुरआन के आदेशों का पालन करने में।
तथा (ऐ नबी!) आप उनके बीच उसी के अनुसार निर्णय करें, जो अल्लाह ने उतारा है, और उनकी इच्छाओं का पालन न करें, तथा उनसे सावधान रहें कि वे आपको किसी ऐसे हुक्म से बहका दें, जो अल्लाह ने आपकी ओर उतारा है। फिर यदि वे फिर जाएँ, तो जान लें कि अल्लाह यही चाहता है कि उन्हें उनके कुछ पापों का दंड पहुँचाए। और निःसंदेह बहुत-से लोग निश्चय उल्लंघनकारी हैं।
ऐ ईमान वालो! तुम यहूदियों तथा ईसाइयों को मित्र न बनाओ। वे परस्पर एक-दूसरे के मित्र हैं। और तुममें से जो उन्हें मित्र बनाएगा, तो निश्चय वह उन्हीं में से है। निःसंदेह अल्लाह अत्याचारियों को मार्गदर्शन प्रदान नहीं करता।
फिर (ऐ नबी!) आप उन लोगों को देखेंगे जिनके दिलों में एक रोग है कि वे दौड़कर उनमें जाते हैं। वे कहते हैं : हम डरते हैं कि हमपर कोई विपत्ति (न) आ जाए। तो निकट है कि अल्लाह विजय प्रदान कर दे या अपनी ओर से कोई और मामला (प्रकट कर दे)। फिर वे उसपर, जो उन्होंने अपने दिलों में छिपाया था, लज्जित हो जाएँ।
तथा ईमान वाले कहते हैं : क्या यही लोग हैं, जिन्होंने अपनी मज़बूत क़समें खाते हुए अल्लाह की क़सम खाई थी कि निःसंदेह वे निश्चय तुम्हारे साथ हैं। उनके कार्य नष्ट हो गए, अतः वे घाटा उठाने वाले हो गए।
ऐ ईमान वालो! तुममें से जो कोई अपने धर्म से फिर जाए, तो अल्लाह निकट ही ऐसे लोग लाएगा, जिनसे वह प्रेम करेगा और वे उससे प्रेम करेंगे। वे ईमान वालों के प्रति बहुत नरम तथा काफ़िरों के प्रति बहुत कठोर[36] होंगे, अल्लाह की राह में जिहाद करेंगे और किसी निंदा करने वाले की निंदा से नहीं डरेंगे। यह अल्लाह का अनुग्रह है, वह उसे देता है जिसको चाहता है और अल्लाह विस्तार वाला, सब कुछ जानने वाला है।
36. कठोर होने का अर्थ यह है कि वह युद्ध तथा अपने धर्म की रक्षा के समय उनके दबाव में नहीं आएँगे, न जिहाद की निंदा उन्हें अपने धर्म की रक्षा से रोक सकेगी।
ऐ ईमान वालो! उन लोगों को जिन्होंने तुम्हारे धर्म को उपहास और खेल बना लिया, उन लोगों में से जिन्हें तुमसे पहले पुस्तक दी गई है और काफ़िरों को मित्र न बनाओ और अल्लाह से डरो, यदि तुम ईमान वाले हो।
(ऐ नबी!) आप कह दें : ऐ किताब वालो! तुम्हें हमारी केवल यह बात बुरी लगती है कि हम अल्लाह पर ईमान लाए और उसपर जो हमारी ओर उतारा गया और उसपर भी जो हमसे पहले उतारा गया और यह कि निःसंदेह तुममें से अधिकतर लोग अवज्ञाकारी हैं।
आप कह दें : क्या मैं तुम्हें अल्लाह के निकट इससे अधिक बुरा बदला वाले लोग बताऊँ, वे लोग जिनपर अल्लाह ने ला'नत की और जिनपर क्रोधित हुआ, और जिनमें से बंदर और सूअर बना दिए और जिन्होंने 'ताग़ूत' की पूजा की। ये लोग दर्जे में अधिक बुरे तथा सीधे मार्ग से अधिक भटके हुए हैं।
और जब वे[37] तुम्हारे पास आते हैं, तो कहते हैं कि हम ईमान लाए, हालाँकि निश्चय वे कुफ़्र के साथ प्रवेश किए और निश्चय उसी के साथ वे निकल गए। तथा अल्लाह अधिक जानने वाला है, जो वे छिपाते थे।
तथा यहूदियों ने कहा कि अल्लाह का हाथ बँधा[38] हुआ है। उनके हाथ बाँधे गए और उनपर ला'नत की गई, उसके कारण जो उन्होंने कहा। बल्कि उसके दोनों हाथ खुले हुए हैं। वह जैसे चाहता है, खर्च करता है। और निश्चय जो कुछ (ऐ रसूल!) आपकी ओर आपके पालनहार की तरफ़ से उतारा गया है, वह उनमें से बहुत-से लोगों को सरकशी (उद्दंडता) और कुफ़्र में अवश्य बढ़ा देगा। तथा हमने उनके बीच क़ियामत के दिन तक शत्रुता और द्वेष डाल दिया। जब कभी वे लड़ाई की कोई आग भड़काते हैं, अल्लाह उसे बुझा[39] देता है। तथा वे धरती में उपद्रव का प्रयास करते रहते हैं और अल्लाह उपद्रव करने वालों से प्रेम नहीं करता।
38. अरबी मुह़ावरे में हाथ बँधे का अर्थ है कंजूस होना, और दान करने से हाथ रोकना। (देखिए : सूरत आल-इमरान, आयत : 181) 39. अर्थात उनके षड्यंत्र को सफल नहीं होने देता, बल्कि उनका कुफल उन्हीं को भोगना पड़ता है। जैसा कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के समय में विभिन्न दशाओं में हुआ।
और यदि वास्तव में अह्ले किताब ईमान ले आते तथा (अल्लाह से) डरते, तो हम अवश्य उनकी बुराइयाँ उनसे दूर कर देते और उन्हें अवश्य नेमतों वाली जन्नतों में दाखिल करते।
तथा यदि वे वास्तव में तौरात और इंजील का पालन[40] करते और उसका जो उनके पालनहार की तरफ़ से उनकी ओर उतारा गया है, तो निश्चय वे अपने ऊपर से तथा अपने पैरों के नीचे से[41] खाते। उनमें से एक समूह मध्यम मार्ग पर है और उनमें से बहुत-से लोग जो कर रहे हैं, वह बहुत बुरा है।
40. अर्थात उनके आदेशों का पालन करते और उसे अपना जीवन विधान बनाते। 41. अर्थात आकाश की वर्षा तथा धर्ती की उपज में अधिकता होती।
ऐ रसूल![42] जो कुछ आपपर आपके पालनहार की ओर से उतारा गया है, उसे पहुँचा दें। और यदि आपने (ऐसा) न किया, तो आपने उसका संदेश नहीं पहुँचाया। और अल्लाह आपको लोगों से बचाएगा।[43] निःसंदेह अल्लाह काफ़िर लोगों को मार्गदर्शन नहीं प्रदान करता।
42. अर्थात मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम। 43. नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के नबी होने के पश्चात् आपपर विरोधियों ने कई बार प्राण घातक आक्रमण का प्रयास किया। जब आपने मक्का में सफ़ा पर्वत से एकेश्वरवाद का उपदेश दिया, तो आपके चचा अबू लहब ने आपपर पत्थर चलाए। फिर उसी युग में आप काबा के पास नमाज़ पढ़ रहे थे कि अबू जह्ल ने आपकी गर्दन रौंदने का प्रयास किया, किंतु आपके रक्षक फ़रिश्तों को देखकर भागा। और जब क़ुरैश ने यह योजना बनाई कि आपको वध कर दिया जाए, और प्रत्येक क़बीले का एक युवक आपके द्वार पर तलवार लेकर खड़ा रहे और आप निकलें तो सब एक साथ प्रहार कर दें, तब भी आप उनके बीच से निकल गए और किसी ने देखा भी नहीं। फिर आपने अपने साथी अबू बक्र के साथ हिजरत के समय सौर पर्वत की गुफा में शरण ली। काफ़िर गुफा के मुँह तक आपकी खोज में आ पहुँचे, उन्हें आपके साथी ने देखा, किंतु वे आपको नहीं देख सके। तथा जब आप वहाँ से मदीना चले, तो सुराक़ा नामी एक व्यक्ति ने क़रैश के पुरस्कार के लोभ में आकर आपका पीछा किया। किंतु उसके घोड़े के अगले पैर भूमि में धंस गए। उसने आपको गुहारा, आपने दुआ कर दी, और उसका घोड़ा निकल गया। उसने ऐसा प्रयास तीन बार किया, फिर भी असफल रहा। आपने उसको क्षमा कर दिया। और यह देखकर वह मुसलमान हो गया। आपने फरमाया कि एक दिन तुम अपने हाथ में ईरान के राजा का कंगन पहनोगे। और उमर बिन ख़त्ताब के युग में यह बात सच साबित हुई। मदीने में भी यहूदियों के क़बीले बनू नज़ीर ने छत के ऊपर से आप पर भारी पत्थर गिराने का प्रयास किया, जिससे अल्लाह ने आपको सूचित कर दिया। ख़ैबर की एक यहूदी स्त्री ने आपको विष मिलाकर बकरी का मांस खिलाया। परंतु आपपर उसका कोई बड़ा प्रभाव नहीं हुआ। जबकि आपका एक साथी उसे खाकर मर गया। एक युद्ध यात्रा में आप अकेले एक वृक्ष के नीचे सो गए। एक व्यक्ति आया और आप की तलवार लेकर कहा : मुझसे आपको कौन बचाएगा? आपने कहा : अल्लाह! यह सुनकर वह काँपने लगा और उस के हाथ से तलवार गिर गई। आपने उसे क्षमा कर दिया। इन सब घटनाओं से यह सिद्ध हो जाता है कि अल्लाह ने आपकी रक्षा करने का जो वचन आपको दिया, उसको पूरा कर दिया।
(ऐ नबी!) आप कह दें : ऐ अह्ले किताब! तुम किसी चीज़ पर नहीं हो, यहाँ तक कि तुम तौरात और इंजील को क़ायम करो[44] और उसको जो तुम्हारी ओर तुम्हारे पालनहार की तरफ़ से उतारा गया है। तथा निश्चय जो कुछ आपकी ओर आपके पालनहार की तरफ़ से उतारा गया है, वह उनमें से बहुत से लोगों को उल्लंघन और कुफ़्र में अवश्य बढ़ा देगा। अतः आप काफ़िर लोगों पर दुखी न हों।
निःसंदेह जो लोग ईमान लाए और जो यहूदी बने, तथा साबी और ईसाई, जो भी अल्लाह तथा अंतिम दिन पर ईमान लाया और उसने अच्छा कर्म किया, तो उनपर न कोई डर है और न वे शोकाकुल[45] होंगे।
45. आयत का भावार्थ यह है कि इस्लाम से पहले यहूदी, ईसाई तथा साबी जिन्होंने अपने धर्म को पकड़ रखा है, और उसमें किसी प्रकार का हेरफेर नहीं किया, अल्लाह और आख़िरत पर ईमान रखा और सत्कर्म किए उनको कोई भय और चिंता नहीं होनी चाहिए। इसी प्रकार की आयत सूरतुल-बक़रा (62) में भी आई है, जिसके विषय में आता है कि कुछ लोगों ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से प्रश्न किया कि उन लोगों का क्या होगा जो अपने धर्म पर स्थित थे और मर गए? इसी पर यह आयत उतरी। परंतु अब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) और आपके लाए धर्म पर ईमान लाना अनिवार्य है, इसके बिना मोक्ष (नजात) नहीं मिल सकता।
निःसंदेह हमने बनी इसराईल से दृढ़ वचन लिया तथा उनकी ओर कई रसूल भेजे। जब कभी कोई रसूल उनके पास वह चीज़ लेकर आया, जिसे उनके दिल नहीं चाहते थे, तो उन्होंने एक गिरोह को झुठला दिया तथा एक गिरोह को क़त्ल करते रहे।
तथा उन्होंने सोचा कि कोई फ़ितना (परीक्षण या दंड) नहीं होगा, इसलिए वे अंधे और बहरे हो गए। फिर अल्लाह ने उन्हें क्षमा कर दिया। फिर उनमें से बहुत से अंधे और बहरे हो गए। तथा अल्लाह ख़ूब देखने वाला है, जो वे करते हैं।
निःसंदेह उन लोगों ने कुफ़्र किया, जिन्होंने कहा कि निःसंदेह अल्लाह[46] तो मरयम का बेटा मसीह ही है। जबकि मसीह ने कहा : ऐ बनी इसराईल! अल्लाह की इबादत करो, जो मेरा पालनहार तथा तुम्हारा पालनहार है। निःसंदेह सच्चाई यह है कि जो भी अल्लाह के साथ साझी बनाए, तो निश्चय उसपर अल्लाह ने जन्नत हराम (वर्जित) कर दी और उसका ठिकाना आग (जहन्नम) है। तथा अत्याचारियों के लिए कोई मदद करने वाले नहीं।
46. आयत का भावार्थ यह है कि ईसाइयों को भी मूल धर्म एकेश्वरवाद और सत्कर्म की शिक्षा दी गई थी। परंतु वे भी उससे फिर गए, तथा ईसा को स्वयं अल्लाह अथवा अल्लाह का अंश बना दिया, और पिता-पुत्र और पवित्रात्मा तीनों के योग को एक प्रभु मानने लगे।
निःसंदेह उन लोगों ने कुफ़्र किया, जिन्होंने कहा : निःसंदेह अल्लाह तीन में से तीसरा है! हालाँकि कोई भी पूज्य नहीं है, परंतु एक पूज्य। और यदि वे उससे नहीं रुके जो वे कहते हैं, तो निश्चय उनमें से जिन लोगों ने कुफ़्र किया, उन्हें अवश्य दर्दनाक यातना पहुँचेगी।
मरयम का बेटा मसीह एक रसूल के सिवा कुछ नहीं। निश्चय उससे पहले बहुत-से रसूल गुज़र चुके और उसकी माँ सिद्दीक़ा (अत्यंत सच्ची) है। दोनों खाना खाया करते थे। देखो, हम उनके लिए किस तरह निशानियाँ स्पष्ट करते हैं। फिर देखो, वे किस तरह फेरे[47] जाते हैं।
47. आयत का भावार्थ यह है कि ईसाइयों को भी मूल धर्म एकेश्वरवाद और सत्कर्म की शिक्षा दी गई थी। परंतु वे भी उससे फिर गए, तथा ईसा को स्वयं अल्लाह तथा अल्लाह का अंश बना दिया, और पिता-पुत्र और पवित्रात्मा तीनों के योग को एक प्रभु मानने लगे।
आप कह दें : क्या तुम अल्लाह के सिवा उसकी इबादत करते हो, जो तुम्हारे लिए न किसी हानि का मालिक है और न लाभ का? तथा अल्लाह ही सब कुछ सुनने वाला, सब कुछ जानने वाला है।
(ऐ नबी!) कह दो : ऐ अह्ले किताब! अपने धर्म में नाहक़ अतिशयोक्ति न करो[48] और उन लोगों की इच्छाओं के पीछे न चलो, जो इससे पहले पथभ्रष्ट[49] हुए और बहुतों को पथभ्रष्ट किया और सीधे मार्ग से भटक गए।
48. "अतिशयोक्ति न करो" अर्थात ईसा अलैहिस्सलाम को प्रभु अथवा प्रभु का पुत्र न बनाओ। 49. इनसे अभिप्राय वे हो सकते हैं, जो नबियों को स्वयं प्रभु अथवा प्रभु का अंश मानते हैं।
बनी इसराईल में से जिन लोगों ने कुफ़्र किया, उनपर दाऊद तथा मरयम के बेटे ईसा की ज़बान पर ला'नत (धिक्कार)[50] की गई। यह इस कारण कि उन्होंने अवज्ञा की तथा वे हद से आगे बढ़ते थे।
50. अर्थात धर्म पुस्तक ज़बूर तथा इंजील में इनके धिक्कृत होने की सूचना दी गई है। (इब्ने कसीर)
आप उनमें से बहुतेरे लोगों को देखेंगे कि वे उन लोगों से मित्रता रखते हैं, जिन्होंने कुफ़्र किया। निश्चय बुरा है जो उन्होंने अपने लिए आगे भेजा कि अल्लाह उनपर क्रुद्ध हो गया तथा यातना ही में वे हमेशा रहने वाले हैं।
और यदि वे अल्लाह और नबी पर और उसपर ईमान रखते होते जो उसकी ओर उतारा गया है, तो उन्हें मित्र न बनाते[52], लेकिन उनमें से बहुत से अवज्ञाकारी हैं।
52. भावार्थ यह है कि यदि यहूदी, मूसा अलैहिस्सलाम को अपना नबी और तौरात को अल्लाह की किताब मानते, जैसा कि उनका दावा है, तो वे मुसलमानों को शत्रु और काफ़िरों को मित्र नहीं बनाते। क़ुरआन का यह सच आज भी देखा जा सकता है।
(ऐ नबी!) निश्चय आप उन लोगों के लिए जो ईमान लाए हैं, सब लोगों से अधिक सख़्त दुश्मनी रखने वाले यहूदियों को तथा उन लोगों को पाएँगे, जिन्होंने शिर्क किया। तथा निश्चय आप उन लोगों के लिए जो ईमान लाए हैं, उनमें से मित्रता में सबसे निकट उनको पाएँगे, जिन्होंने कहा निःसंदेह हम ईसाई हैं। यह इसलिए कि निःसंदेह उनमें विद्वान तथा पादरी (उपासक) हैं और इसलिए कि निःसंदेह वे अभिमान[53] नहीं करते।
53. अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हुमा) कहते हैं कि यह आयत ह़ब्शा के राजा नजाशी और उसके साथियों के बारे में उतरी, जो क़ुरआन सुनकर रोने लगे, और मुसलमान हो गए। (इब्ने जरीर)
तथा जब वे उस (क़ुरआन) को सुनते हैं, जो रसूल की ओर उतारा गया है, तो आप देखते हैं कि उनकी आँखें आँसुओं से बह रही होती हैं, इस कारण कि उन्होंने सत्य को पहचान लिया। वे कहते हैं : ऐ हमारे पालनहार! हम ईमान ले आए। अतः हमें (सत्य) की गवाही देने वालों के साथ लिख[54] ले।
54. जब जाफ़र (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने ह़ब्शा के राजा नजाशी को सूरत मरयम की आरंभिक आयतें सुनाईं, तो वह और उस के पादरी रोने लगे। (सीरत इब्ने हिशाम 1/359)
और हमें क्या है कि हम अल्लाह पर तथा उस सत्य पर ईमान न लाएँ, जो हमारे पास आया है? जबकि हम आशा रखते हैं कि हमारा पालनहार हमें सदाचारियों के साथ दाखिल कर लेगा।
तो अल्लाह ने उनके यह कहने के बदले में उन्हें ऐसे बाग़ प्रदान किए, जिनके नीचे से नहरें बहती हैं, जिनमें वे सदैव रहने वाले हैं तथा यही सत्कर्मियों का बदला है।
ऐ ईमान वालो! उन स्वच्छ पवित्र चीज़ों को, जो अल्लाह ने तुम्हारे लिए हलाल (वैध) की हैं, हराम (अवैध)[55] न ठहराओ और सीमा से आगे न बढ़ो। निःसंदेह अल्लाह हद से आगे बढ़ने वालों[56] से प्रेम नहीं करता।
55. अर्थात किसी भी खाद्य अथवा वस्तु को वैध अथवा अवैध करने का अधिकार केवल अल्लाह को है। 56. यहाँ से फिर आदेशों तथा निषेधों का वर्णन किया जा रहा है। अन्य धर्मों के अनुयायियों ने संन्यास को अल्लाह के सामीप्य का साधन समझ लिया था, और ईसाइयों ने संन्यास की रीति बना ली थी और अपने ऊपर सांसारिक उचित स्वाद तथा सुख को अवैध कर लिया था। इस लिए यहाँ सावधान किया जा रहा है कि यह कोई अच्छाई नहीं, बल्कि धर्म सीमा का उल्लंघन है।
अल्लाह तुम्हें तुम्हारी व्यर्थ क़समों[57] पर नहीं पकड़ता, परंतु तुम्हें उसपर पकड़ता है जो तुमने पक्के इरादे से क़समें खाई हैं। तो उसका प्रायश्चित[58] दस निर्धनों को भोजन कराना है, औसत दर्जे का, जो तुम अपने घर वालों को खिलाते हो, अथवा उन्हें कपड़े पहनाना, अथवा एक दास मुक्त करना। फिर जो न पाए, तो तीन दिन के रोज़े रखना है। यह तुम्हारी क़समों का प्रायश्चित है, जब तुम क़सम खा लो तथा अपनी क़समों की रक्षा करो। इसी प्रकार अल्लाह तुम्हारे लिए अपनी आयतें (आदेश) खोलकर बयान करता है, ताकि तुम आभार व्यक्त करो।
57. व्यर्थ अर्थात बिना निश्चय के। जैसे कोई बात-बात पर बोलता है : (नहीं, अल्लाह की क़सम!) अथवा (हाँ, अल्लाह की क़सम!) (बुख़ारी : 4613) 58. अर्थात यदि क़सम तोड़ दे, तो यह प्रायश्चित है।
ऐ ईमान वालो! बात यही है कि शराब[59], जुआ, देवथान[60] और फ़ाल निकालने के तीर[61] सर्वथा गंदे और शैतानी कार्य हैं। अतः इनसे दूर रहो, ताकि तुम सफल हो।
59. शराब के निषेध के विषय में पहले सूरतुल-बक़रा आयत : 219, और सूरतुन-निसा, आयत : 43 में दो आदेश आ चुके हैं। और यह अंतिम आदेश है, जिसमें शराब को सदैव के लिए वर्जित कर दिया गया। 60. देवथान अर्थात वह वेदियाँ जिन पर देवी-देवताओं के नाम पर पशुओं की बलि दी जाती है। आयत का भावार्थ यह है कि अल्लाह के सिवा किसी अन्य के नाम से बलि दिया हुआ पशु अथवा प्रसाद अवैध है। 61. यानी पाँसे, ये तीन तीर होते हैं, जिनसे वे कोई काम करने के समय यह निर्णय लेते थे कि उसे करें या न करें। उनमें एक पर "करो" और दूसरे पर "मत करो" और तीसरे पर "शून्य" लिखा होता था।
शैतान तो यही चाहता है कि शराब तथा जुए के द्वारा तुम्हारे बीच बैर तथा द्वेष डाल दे और तुम्हें अल्लाह के स्मरण तथा नमाज़ से रोक दे, तो क्या तुम रुकने वाले हो?
तथा अल्लाह का आज्ञापालन करो और रसूल का आज्ञापालन करो और (अवज्ञा से) सावधान रहो। फिर यदि तुम विमुख हुए, तो जान लो कि हमारे रसूल पर केवल स्पष्ट रूप से (संदेश) पहुँचा देना है।
उन लोगों पर जो ईमान लाए तथा उन्होंने अच्छे कर्म किए, उसमें कोई पाप नहीं जो वे खा चुके, जबकि वे अल्लाह से डरे तथा ईमान लाए और सत्कर्म किए, फिर वे डरते रहे और ईमान पर स्थिर रहे, फिर वे अल्लाह से डरे और उन्होंने अच्छे कार्य किए और अल्लाह अच्छे कार्य करने वालों से प्रेम करता[62] है।
62. आयत का भावार्थ यह है कि जिन्होंने वर्जित चीज़ों का निषेधाज्ञा से पहले प्रयोग किया, फिर जब भी उनको निषिद्ध किया गया तो उनसे रुक गए, उनपर कोई दोष नहीं। सह़ीह़ ह़दीस में है कि जब शराब वर्जित की गई, तो कुछ लोगों ने कहा कि कुछ लोग इस स्थिति में मर गए कि वे शराब पीते थे। उसी पर यह आयत उतरी। (बुख़ारी : 4620) आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कहा : जो भी नशा लाए, वह मदिरा और अवैध है। (सह़ीह़ बुख़ारी : 2003) और इस्लाम में उसका दंड अस्सी कोड़े हैं। (बुख़ारी : 6779)
ऐ ईमान वालो! निश्चय अल्लाह शिकार में से किसी चीज़ के साथ तुम्हारी अवश्य परीक्षा लेगा, जिसपर तुम्हारे हाथ तथा भाले पहुँचते होंगे, ताकि अल्लाह जान ले कि कौन उससे बिन देखे डरता है। फिर जो उसके पश्चात सीमा से बढ़े, तो उसके लिए दर्दनाक यातना है।
ऐ ईमान वालो! शिकार को न मारो[63], जबकि तुम एहराम की स्थिति में हो। तथा तुममें से जो उसे जान-बूझकर मारे, तो चौपायों में से उसी जैसा बदला है जो उसने मारा है, जिसका निर्णय तुममें से दो न्यायप्रिय व्यक्ति करेंगे, जो क़ुर्बानी के रूप में काबा पहुँचने वाली है, या प्रायश्चित[64] के रूप में निर्धनों को खाना खिलाना है, या उसके बराबर रोज़े रखने हैं, ताकि वह अपने किए का कष्ट चखे। अल्लाह ने क्षमा कर दिया जो कुछ हो चुका और जो फिर करे, तो अल्लाह उससे बदला लेगा और अल्लाह सबपर प्रभुत्वशाली, बदला लेने वाला है।
63. इससे अभिप्राय थल का शिकार है। 64. अर्थात यदि शिकार के पशु के समान पालतू पशु न हो, तो उसका मूल्य ह़रम के निर्धनों को खाने के लिए भेजा जाए अथवा उसके मूल्य से जितने निर्धनों को खिलाया जा सकता हो, उतने रोज़े रखे जाएँ।
तथा तुम्हारे लिए समुद्र (जल) का शिकार और उसका खाना[65] हलाल कर दिया गया, तुम्हारे तथा यात्रियों के लाभ के लिए, तथा तुमपर भूमि का शिकार हराम कर दिया गया है जब तक तुम एहराम की स्थिति में रहो, और अल्लाह (की अवज्ञा) से डरो, जिसकी ओर तुम एकत्र किए जाओगे।
65. अर्थात जो बिना शिकार किए हाथ आए, जैसे मरी हुई मछली। अर्थात जल का शिकार एह़राम की स्थिति में तथा साधारण अवस्था में अनुमेय है।
अल्लाह ने सम्मानित घर काबा को लोगों के लिए स्थापना का साधन बनाया है तथा सम्मानित महीनों[66] और (हज्ज की) क़ुर्बानी के जानवरों तथा गर्दन में पट्टे लगे हुए जानवरों को। यह इसलिए कि तुम जान लो कि निःसंदेह अल्लाह जानता है, जो कुछ आकाशों में है और जो कुछ धरती में है, तथा यह कि निःसंदेह अल्लाह प्रत्येक वस्तु को ख़ूब जानने वाला है।
66. सम्मानित महीनों से अभिप्रेत ज़ुल-क़ादा, ज़ुल-ह़िज्जा, मुह़र्रम और रजब के महीने हैं।
(ऐ नबी!) कह दो कि अपवित्र (बुरी चीज़) तथा पवित्र (अच्छी चीज़) समान नहीं, चाहे अपवित्र (बुरी चीज़) की बहुतायत तुम्हें भली लगे। तो ऐ बुद्धि वालो! अल्लाह से डरो, ताकि तुम सफल हो जाओ।[67]
67. आयत का भावार्थ यह है कि अल्लाह ने जिससे रोक दिया है, वही मलिन और जिसकी अनुमति दी है, वही पवित्र है। अतः मलिन में रूचि न रखो, और किसी चीज़ की कमी और अधिकता को न देखो, उसके लाभ और हानि को देखो।
ऐ ईमान वालो! उन चीज़ों के विषय में प्रश्न न करो, जो यदि तुम्हारे लिए प्रकट कर दी जाएँ, तो तुम्हें बुरी लगें, तथा यदि तुम उनके विषय में उस समय प्रश्न करोगे, जब क़ुरआन उतारा जा रहा है, तो वे तुम्हारे लिए प्रकट कर दी जाएँगी। अल्लाह ने उन्हें क्षमा कर दिया और अल्लाह बहुत क्षमा करने वाला, अत्यंत सहनशील[68] है।
68. इब्ने अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हुमा) कहते हैं कि कुछ लोग नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से उपहास के लिए प्रश्न किया करते थे। कोई प्रश्न करता कि मेरा पिता कौन है? किसी की ऊँटनी खो गई हो, तो आपसे प्रश्न करता कि मेरी ऊँटनी कहाँ है? इसी पर यह आयत उतरी। (सह़ीह़ बुख़ारी : 4622)
निःसंदेह तुमसे पहले कुछ लोगों ने ऐसी ही बातों के बारे में प्रश्न किया[69], फिर वे इसके कारण काफ़िर हो गए।
69. अर्थात अपने रसूलों से। आयत का भावार्थ यह है कि धर्म के विषय में कुरेद न करो। जो करना है, अल्लाह ने बता दिया है, और जो नहीं बताया है उसे क्षमा कर दिया है, अतः अपने मन से प्रश्न न करो, अन्यथा धर्म में सुविधा की जगह असुविधा पैदा होगी, और प्रतिबंध अधिक हो जाएँगे, तो फिर तुम उनका पालन न कर सकोगे।
अल्लाह ने कोई बह़ीरा, साइबा, वसीला और ह़ाम नियुक्त नहीं किया।[70] परंतु जिन लोगों ने कुफ़्र किया वे अल्लाह पर झूठ बाँधते हैं और उनमें से अधिकतर नहीं समझते।
70. अरब के मिश्रणवादी देवी- देवता के नाम पर कुछ पशुओं को छोड़ देते थे, और उन्हें पवित्र समझते थे, यहाँ उन्हीं की चर्चा की गई है। बह़ीरा- वह ऊँटनी जिसे उसका कान चीर कर देवताओं के लिए मुक्त कर दिया जाता था, और उसका दूध कोई नहीं दूह सकता था। साइबा- वह पशु जिसे देवताओं के नाम पर मुक्त कर देते थे, जिसपर न कोई बोझ लाद सकता था, न सवार हो सकता था। वसीला- वह ऊँटनी जिसका पहला तथा दूसरा बच्चा मादा हो, ऐसी ऊँटनी को भी देवताओं के नाम पर मुक्त कर देते थे। ह़ाम- नर जिसके वीर्य से दस बच्चे हो जाएँ, उन्हें भी देवताओं के नाम पर साँड बना कर मुक्त कर दिया जाता था। भावार्थ यह है कि ये अनर्गल चीजें हैं। अल्लाह ने इनका आदेश नहीं दिया है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कहा : मैंने नरक को देखा कि उसकी ज्वाला एक दूसरे को तोड़ रही है। और अमर बिन लुह़य्य को देखा कि वह अपनी आँतें खींच रहा है। उसी ने सबसे पहले साइबा बनाया था। (बुख़ारी : 4624)
और जब उनसे कहा जाता है : आओ उसकी ओर जो अल्लाह ने उतारा है और रसूल की ओर, तो कहते हैं : हमें वही काफ़ी है, जिसपर हमने अपने बाप-दादा को पाया है। क्या अगरचे उनके बाप-दादा कुछ भी न जानते हों और न मार्गदर्शन पाते हों।
ऐ ईमान वालो! तुमपर अपनी चिंता अनिवार्य है। तुम्हें वह व्यक्ति हानि नहीं पहुँचाएगा, जो गुमराह हो गया, जब तुम मार्गदर्शन पा चुके। अल्लाह ही की ओर तुम सबको लौटकर जाना है। फिर वह तुम्हें बताएगा, जो कुछ तुम किया करते थे।[71]
71. आयत का भावार्थ यह है कि यदि लोग कुपथ हो जाएँ, तो उनका कुपथ होना तुम्हारे लिए तर्क (दलील) नहीं हो सकता कि जब सभी कुपथ हो रहे हैं तो हम अकेले क्या करें? प्रत्येक व्यक्ति पर स्वयं अपना दायित्व है, दूसरों का दायित्व उस पर नहीं है। अतः पूरा संसार कुपथ हो जाए, तब भी तुम सत्य पर स्थित रहो।
ऐ ईमान वालो! जब तुममें से किसी की मृत्यु आ पहुँचे, तो वसिय्यत[72] के समय तुम्हारे बीच गवाही (के लिए) तुममें से दो न्यायप्रिय व्यक्ति हों या तुम्हारे ग़ैरों में से दूसरे दो व्यक्ति हों, यदि तुम धरती में यात्रा कर रहे हो, फिर तुम्हें मरण की आपदा आ पहुँचे। तुम उन दोनों को नमाज़ के बाद रोक लोगे, यदि तुम्हें (उनपर) संदेह हो। फिर वे दोनों अल्लाह की क़सम खाएँगे कि हम उसके साथ कोई मूल्य नहीं लेंगे, यद्यपि वह निकट का संबंधी हो और न हम अल्लाह की गवाही छिपाएँगे, निःसंदेह हम उस समय निश्चय पापियों में से होंगे।
फिर यदि पता चले कि निःसंदेह वे दोनों (गवाह) किसी पाप के पात्र हुए हैं, तो उन दोनों के स्थान पर, दो अन्य गवाह खड़े हों, उनमें से जिनका हक़ दबाया गया है, जो (मरे हुए व्यक्ति के) अधिक निकट हों। फिर वे दोनों अल्लाह की क़समें खाएँ कि हमारी गवाही उन दोनों की गवाही से अधिक सच्ची है और हमने कोई ज़्यादती नहीं की। निःसंदेह हम उस समय निश्चय अत्याचारियों में से होंगे।
यह अधिक निकट है कि वे गवाही को उसके (वास्तविक) तरीक़े पर दें, अथवा इस बात से डरें कि (उनकी) क़समें उन (संबंधियों) की क़समों के बाद रद्द कर दी जाएँगी तथा अल्लाह से डरो और सुनो और अल्लाह अवज्ञाकारियों को मार्गदर्शन प्रदान नहीं करता।[73]
73. आयत 106 से 108 तक में वसिय्यत तथा उसके साक्ष्य का नियम बताया जा रहा है कि दो विश्वस्त व्यक्तियों को साक्षी बनाया जाए, और यदि मुसलमान न मिलें तो ग़ैर मुस्लिम भी साक्षी हो सकते हैं। साक्षियों को शपथ के साथ साक्ष्य देना चाहिए। विवाद की दशा में दोनों पक्ष अपने-अपने साक्षी लाएँ, जो इनकार करे उसपर शपथ है।
जिस दिन अल्लाह रसूलों को एकत्र करेगा, फिर कहेगा : तुम्हें क्या उत्तर दिया गया? वे कहेंगे : हमें कोई ज्ञान नहीं।[74] निःसंदेह तू ही छिपी बातों को ख़ूब जानने वाला है।
74. अर्थात हम नहीं जानते कि उनके मन में क्या था, और हमारे बाद उनका कर्म क्या रहा?
(तथा याद करो) जब अल्लाह कहेगा : ऐ मरयम के पुत्र ईसा! अपने ऊपर तथा अपनी माता के ऊपर मेरा अनुग्रह याद कर, जब मैंने पवित्रात्मा (जिबरील) द्वारा तेरी सहायता की। तू गोद (पालने) में तथा अधेड़ आयु में लोगों से बातें करता था। तथा जब मैंने तुझे किताब और हिकमत तथा तौरात और इंजील की शिक्षा दी। और जब तू मेरी अनुमति से मिट्टी से पक्षी की आकृति की तरह (रूप) बनाता था, फिर तू उसमें फूँक मारता तो वह मेरी अनुमति से पक्षी बन जाता था और तू जन्म से अंधे तथा कोढ़ी को मेरी अनुमति से स्वस्थ कर देता था और जब तू मुर्दों को मेरी अनुमति से निकाल (जीवित) खड़ा करता था। और जब मैंने बनी इसराईल को तुझसे रोका, जब तू उनके पास खुली निशानियाँ लेकर आया, तो उनमें से कुफ़्र करने वालों ने कहा : यह तो स्पष्ट जादू के सिवा कुछ नहीं।
तथा (याद कर) जब मैंने हवारियों के दिलों में यह बात डाल दी कि मुझपर तथा मेरे रसूल (ईसा) पर ईमान लाओ। उन्होंने कहा : हम ईमान लाए और तू गवाह रह कि हम आज्ञाकारी हैं।
जब हवारियों ने कहा : ऐ मरयम के पुत्र ईसा! क्या तेरा पालनहार यह कर सकता है कि हमपर आकाश से एक थाल (भोजन सहित दस्तर-ख़्वान) उतार दे? उस (ईसा) ने कहा : अल्लाह से डरो, यदि तुम ईमान वाले हो।
उन्होंने कहा : हम चाहते हैं कि उसमें से खाएँ और हमारे दिलों को संतोष हो जाए तथा हम जान लें कि निश्चय तूने हमसे सच कहा है और हम उसपर गवाहों में से हो जाएँ।
मरयम के पुत्र ईसा ने प्रार्थना की : ऐ अल्लाह! ऐ हमारे पालनहार! हम पर आकाश से एक थाल उतार, जो हमारे तथा हमारे पश्चात् के लोगों के लिए उत्सव (का दिन) बन जाए तथा तेरी ओर से एक निशानी (हो)। तथा हमें जीविका प्रदान कर, तू ही सबसे उत्तम जीविका प्रदान करने वाला है।
अल्लाह ने कहा : निःसंदेह मैं उसे तुमपर उतारने[75] वाला हूँ। फिर जो उसके बाद तुममें से कुफ़्र (अविश्वास) करेगा, तो निःसंदेह मैं उसे दंड दूँगा, ऐसा दंड कि संसार वासियों में से किसी को न दूँगा।
75. अधिकतर भाष्यकारों ने लिखा है कि वह थाल आकाश से उतरा। (इब्ने कसीर)
तथा जब अल्लाह (क़ियामत के दिन) कहेगा : ऐ मरयम के पुत्र ईसा! क्या तुमने लोगों से कहा था कि मुझे तथा मेरी माँ को अल्लाह के अलावा दो पूज्य बना लो? वह कहेगा : तू पवित्र है, मुझसे यह कैसे हो सकता है कि ऐसी बात कहूँ, जिसका मुझे कोई अधिकार नहीं? यदि मैंने यह बात कही थी, तो निश्चय तूने उसे जान लिया। तू जानता है, जो मेरे मन में है और मैं नहीं जानता जो तेरे मन में है। निश्चय तू ही सब छिपी बातों (परोक्ष)) को बहुत ख़ूब जानने वाला है।
मैंने उनसे उसके सिवा कुछ नहीं कहा, जिसका तूने मुझे आदेश दिया था कि अल्लाह की इबादत करो, जो मेरा पालनहार और तुम्हारा पालनहार है। और मैं उनपर गवाह था, जब तक उनमें रहा, फिर जब तूने मुझे उठा लिया[76], तो तू ही उनपर निरीक्षक था और तू हर चीज़ पर गवाह है।
76. अर्थात् आकाश पर उठा लिया। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कहा : जब प्रलय के दिन कुछ लोग बायें से धर लिए जाएँगे तो मैं भी यही कहूँगा। (बुख़ारी : 4626)
अल्लाह कहेगा : यह वह दिन है कि सच्चों को उनका सच ही लाभ देगा। उन के लिए ऐसे बाग़ हैं, जिनके नीचे से नहरें बहती हैं, उनमें हमेशा-हमेशा के लिए रहने वाले हैं। अल्लाह उनसे प्रसन्न हो गया तथा वे अल्लाह से प्रसन्न हो गए, यही बहुत बड़ी सफलता है।
आकाशों और धरती तथा जो कुछ उनमें है, उन सबका राज्य अल्लाह ही[77] के लिए है और वह हर चीज़ पर शक्ति रखने वाला है।
77. आयत 116 से अब तक की आयतों का सारांश यह है कि अल्लाह ने पहले अपने वे पुरस्कार याद दिलाए जो ईसा अलैहिस्सलाम को प्रदान किए। फिर कहा कि सत्य की शिक्षाओं के होते तेरे अनुयायियों ने क्यों तुझे और तेरी माता को पूज्य बना लिया? इसपर ईसा अलैहिस्सलाम कहेंगे कि मैं इससे निर्दोष हूँ। अभिप्राय यह है कि सभी नबियों ने एकेश्वरवाद तथा सत्कर्म की शिक्षा दी। परंतु उनके अनुयायियों ने उन्हीं को पूज्य बना लिया। इस लिए इसका भार अनुयायियों और वे जिसकी पूजा कर रहे हैं, उनपर है। वह स्वयं इससे निर्दोष हैं।
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